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उपदेशामृत "जेती मनमें ऊपजे, तेती लखी न जाय; तातै पत्रप्रवृत्तिमें, वृत्ति रही संकुचाय."
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास
ता.३०-५-२१,सं.१९७७ समभाव रखकर शेष जीवनमें आत्मार्थ करना योग्य है। विकल्प करनेसे कर्म उपार्जन होते हैं। अतः समभाव रखना उचित है। समभाव रखकर जो जो आये उसे देखते रहें। धैर्य रखें। साता-असाता, संयोग-वियोग, राग-द्वेष, अनुराग-अननुराग ये किसी व्यवस्थित कारणसे रहते हैं। अतः जो आये उसे हमें समभावसे भोग लेना चाहिये।
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राजनगर,ता.१५-१-२२
"जो जो पुद्गल-फरसना, निश्चे फरसे सोय; ममता-समता भावसें, कर्म-बंध-क्षय होय. स्वर्ग, मृत्यु, पातालमें, सप्त द्वीप नव खंड; कर्म-योग सबकू हुवे, देह धर्याका दंड. समभावे उदय सहे, रहे स्वरूपे स्थित; दहे पूर्वप्रारब्धने, ए ज्ञानीनी रीत."
६३ राजनगर, पोष वद ७, शुक्र, १९७८ २“सद्गुरु-पद उपकारने, संभाळं दिनरात;
जेणे क्षणमांही कर्यो, अनाथने य सनाथ. सद्गुरु चरण जहां धरे, जंगम तीरथ तेह; ते रज मम मस्तक चडो, बालक मागे एह."
६४ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम अगास, ता.२-५-२२ जो मति पीछे ऊपजे, सो मति पहले होय;
काज न विणसे आपणो, लोक हसे नहि कोय. १. समभावसे कर्मोदयके फलको सहन करते हुए अपने आत्मस्वरूपमें स्थित रहते हैं जिससे पूर्वप्रारब्धका क्षय हो जाता है-यही ज्ञानीकी रीति है।
२. सद्गुरुके चरणकमल(आश्रय)के उपकारको मैं रातदिन याद करता हूँ कि जिसने एक क्षणमें अनाथ ऐसे इस जीवको सनाथ कर दिया । अर्थात् सद्गुरुके आश्रयसे जीव सनाथ हो जाता है-इस अशरण संसारमें दुःखसे बचानेवाले शरणरूप (नाथरूप) एक सद्गुरु ही है।
३. जो बुद्धि बादमें उत्पन्न होती है वह यदि पहले उत्पन्न हो जाय तो अपना काम भी बिगड़े नहीं और लोग हँसाई भी न हो।
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