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पत्रावलि-१ ६०
मंडाला, चैत्र सुदी ६, गुरु, १९७७ नरम गरम शरीरप्रकृतिके संयोगसे, वृद्धावस्थाके कारण तथा उदयकर्मके कारण व्याधि या वेदना आवे उसे समभावसे, देवाधिदेव परमकृपालु सद्गुरुदेवकी शरणपूर्वक भोगा जाय ऐसी इच्छासे वर्तन हो रहा है जी। क्योंकि इस देहसे भिन्न आत्मा वेदनाके समय व्याकुलताको छोड़ शांतभावसे अपने स्वरूपकी ओर मुड़े ऐसा प्रयत्न करना योग्य है जी। देह विनाशी है और आत्मा अखंड अविनाशी है, इसे भूलना नहीं चाहिये।
जगतके सर्व भावोंसे उदासीनता रखकर, हृदयको निर्मल कर, सारे विश्वको चैतन्यवत् देखनेके विचारमें मनको जोड़ें। परमकृपालु श्री सद्गुरु देवाधिदेव श्री प्रभुकी छबि हृदयमंदिरमें स्थापित कर, खड़ी कर, मनको उसीमें पिरोकर परम शुद्ध चैतन्यका निवासधाम, ऐसी जो सद्गुरुदेवश्रीकी पवित्र देह है, उसका वीतरागभावसे ध्यान करनेसे, स्मरण करनेसे, बारंबार याद करनेसे भी जीव परम शांत दशाको प्राप्त करता है, यह भूलने योग्य नहीं है।
इस विषयका बोध देवाधिदेव सद्गुरुके मुखसे हुआ है, उसे हृदयमें धारण किया है, उसे आज परमार्थका हेतु जानकर, हृदयमें किसी प्रकारके स्वार्थ या अन्य भावके हेतुसे नहीं, ऐसा सोचकर आपको यहाँ पत्र द्वारा सरल भावसे विदित किया है जी। आप सुज्ञ है अतः ध्यानमें रखियेगा। हमारा भी समय इसी विचारमें व्यतीत हो रहा है जी। अन्य सब तो भूल जाने जैसा है जी।
हे प्रभु! प्रायः शरीर-व्याधिके कारण पत्र लिखने-लिखानेमें चित्तवृत्तिका संकोच कर लिया है जी। अतः किसीको पत्र लिखाना नहीं होता। आपके चित्तको विकल्प न हो इसलिये, या हमें समभाव रहता है यह आपको बतानेके लिये आज यह पत्र लिखाया है। यद्यपि संपूर्ण वीतरागता तो इस दशा में यथातथ्य विद्यमान है जी, किन्तु छद्मस्थ वीतरागदशासे जितनी-जितनी सद्गुरु प्रत्यक्ष पुरुषकी प्रतीति, यथातथ्य श्रद्धा, रुचि परिणत हुई है उतनी-उतनी समदृष्टि अंतरवृत्तिमें रहती है जी। वह आपश्रीको सूचित किया है जी।
आप भी जैसे भी हो सके उस सत्पुरुषकी दशाको लक्ष्यमें लेंगे तो आत्मकल्याणका हेतु है जी। वैसे, सूक्ष्म मायासे ठगा जाकर यह जीव वृत्तिमें भूल करता है जी-'मैं समझता हूँ', 'मैं जानता हूँ' आदि दोष इस जीवमें होते हैं इसे नहीं समझनेसे। अतः प्रत्यक्ष पुरुषके वचनामृतसे विचार कर जीवको गहन चिंतन लक्ष्यमें लेने योग्य है जी।
१"अस्ति स्वभाव रुचि थई रे, ध्यातो अस्ति स्वभाव;
देवचंद्र पद ते लहे रे, परमानंद जमावो रे कुंथु जिनेसरु. ९" २"तेणे मुज आतमा तुज थकी नीपजे, माहरी संपदा सकल मुज संपजे;
तेणे मनमंदिरे धर्म प्रभु ध्याईये, परम देवचंद्र निज सिद्धि सुख पाईए. १०" १. आत्माके अस्तिस्वभावकी रुचि होनेसे (सम्यग्दर्शन होनेसे) अस्तिस्वभावका ध्यान करता है-आत्मामें रमणता करता है जिससे देवचंद्रपद अर्थात् मोक्षपदकी प्राप्ति होती है जहाँ परमानंदकी प्रचुरता है अर्थात् आनंद ही आनंद है।
२. श्री देवचंद्रजी धर्मनाथ प्रभुकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे धर्मनाथ प्रभु! आपके द्वारा आपके शुद्ध स्वरूपके चिंतनसे मुझे अपने आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होती है, मेरी संपूर्ण आत्मसंपदा मुझे प्राप्त होती है इसलिये मैं अपने मनमंदिरमें आपका ध्यान करता हूँ जिससे मुझे सिद्धिसुख-मोक्षसुखकी प्राप्ति हो जाये।
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