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________________ बोटिक मत का विवरण सर्वतः साधर्म्य हो सकेगा, अन्यथा नहीं । शिवभूति-यदि ऐसा भी किया जाए तो क्या आपत्ति होगी ? कृष्ण-यदि तीर्थङ्करों का सम्पूर्ण रूप से अनुकरण करना शुरू कर दिया जाए तो यह जो तीर्थ अभी चल रहा है, उसकी क्या गति होगी ? कोई भी छद्मस्थ किसी को उपदेश भी नहीं दे सकेगा और दीक्षा भी नहीं दे सकेगा, तो तीर्थ का विच्छेद ही हो जाएगा । शिवभूति-तीर्थङ्कर का सभी बातों में साधर्म्य जरूरी नहीं माना जाए तो फिर आपका क्या कहना है ? कृष्ण-यदि तीर्थङ्कर का अनुकरण ही नहीं करना है, तो यह अचेल-कल्प का आग्रह भी क्यों रखते हो (३०७१, ३०७२) । शिवभूति-मेरा यह आग्रह नहीं कि तीर्थङ्कर की सभी बातों का अनुसरण करूँ; फिर भी अचेलकता का आग्रह क्यों न किया जाए ?--यह आप बताएँ । कृष्ण-तीर्थङ्कर के साथ सर्वतः साधर्म्य नहीं है, अर्थात् उनके समान हम सातिशय नहीं हैं, अतः अच्छा यही है कि हम उनके वेश का और आचार का सर्वतः साधर्म्य न करके अंशतः अनुकरण करें (३०७३) । शिवभूति-जिनकल्प के विषय में जिनवरों की आज्ञा तो हमारे समक्ष है ही, तब जिनकल्प का आश्रय क्यों न लिया जाए ? कृष्ण-हम यह नहीं कहते कि जिनकल्प के विषय में जिनवरों की आज्ञा नहीं है । वह तो अवश्य है, किन्तु देखना यह है कि जिन मुनियों ने जिनकल्प का आश्रय लिया था, उनकी किस प्रकार की योग्यता थी । वे उत्तम धृति और संघयण से सम्पन्न थे, पूर्वो का ज्ञान रखते थे और सदाकाल सातिशय थे तथा जिनकल्प के स्वीकार के पूर्व अपने जीवन में पर्याप्त परिकर्म अर्थात् पूर्व-तैयारी रूप विविध क्रिया से सम्पन्न थे । हमारे जैसे सामान्य पुरुषों के लिये जिनकल्प की आज्ञा तीर्थङ्करों ने नहीं दी हैं (३०७४) । अतएव जिनवर की आज्ञा से यदि जिनकल्प का स्वीकार करना चाहते हो, तो यह भी तो जिनवर की आज्ञा ही है कि आज के काल में जिनकल्प विच्छिन्न है-इसे क्यों नहीं मानते ? जिनकल्प के अस्तित्व का यदि प्रमाण मानते हो, तो वह आज नहीं हैं-इसे अप्रमाण क्यों मानते हो ? (३०७५) । शिवभूति-जिनवर का कौन सा वचन है, जिसमें जिनकल्प के विच्छेद की बात कही गई है ? कृष्ण-जिन-वचन इस प्रकार है श्री जंबू स्वामी के गत होने पर (१) मन:पर्यव ज्ञान, (२) परमावधि ज्ञान, (३) पुलाक लब्धि, (४) आहारक लब्धि (५) क्षपक श्रेणी, (६) उपशम श्रेणी, (७) जिनकल्प, (८) परिहारविशुद्धि चारित्र, (९) सूक्ष्म सम्पराय चारित्र, (१०) यथाख्यात चारित्र, (ये तीन संयम हैं,) (११) केवलज्ञान और (१२) सिद्धि–ये विच्छिन्न हो गए हैं (३०७६) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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