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ŚRUTA-SARITĀ
शिवभूति-तीर्थङ्करो की तरह उनके अनुयायी सभी मुनियों को भी वस्त्र-पात्र रहित ही रहना उचित है; अर्थात् अचेल और पाणिपात्र रहना अनिवार्य है । अतः मुनियों को वस्त्र-पात्र रखना नहीं चाहिये ।
कृष्ण-तीर्थङ्कर अपनी साधक अवस्था में भी निरुपम धृति और शरीर-संघयण वाले होते हैं तथा चार ज्ञान और सातिशय शक्त-सम्पन्न होते हैं । उन्होंने सभी परीषहों को भी जीत लिया होता है । इसलिये वस्त्र को संयम का साधन मान कर ग्रहण न करें, यह उनके लिये उचित ही है; तथा उनके छिद्र-रहित हाथ ही पात्र का काम देते हैं; अतएव पात्र को संयमोपकारी समझ कर नहीं रखें, यह उचित ही है (३०६४) ।
दूसरी बात यह भी है कि वस्त्र-पात्र के अभाव में भी साधारण मुनियों को पूर्वोक्त जिन दोषों की सम्भावना है, उन दोषों का सम्भव वस्त्र-पात्र के अभाव में भी तीर्थङ्करों को है नहीं । अतः तीर्थङ्करों के लिये वस्त्र-पात्र संयम का साधन नहीं होने से वे उनका ग्रहण नहीं करते (३०६५) फिर भी सवस्त्र तीर्थ का उपदेश देने के लिये दीक्षा के समय एक वस्त्र का ग्रहण करते ही हैं; किन्तु वह वस्त्र भी च्युत हो जाता है तब अचेल ही बन जाते हैं (३०६६) ।
शिवभूति-जिनकल्पी आदि सदैव निरुपधिक होते हैं । अतएव उनका अनुकरण सभी मुनियों को करना चाहिये ।
कृष्ण-यह कोई एकान्त नहीं है कि जिनकल्पी-स्वयंबुद्ध आदि उपधि नहीं रखते । देखा गया है कि वे एकान्ततः सोपधिक हैं, क्योंकि शास्त्र में घुटुण' की अपेक्षा से उनके उपकरणों का नाना प्रकार का मान बताया गया है (३०६७) ।
शिवभूति-किन्तु तीर्थङ्कर तो अचेल होते हैं, अतएव मुनियों को भी अचेल ही रहना जरूरी है।
कृष्ण-तीर्थंकरों की तरह यदि रहना हो तो तुम उनकी तरह सातिशय नहीं, अत: उनकी तरह अचेल भी नहीं हो सकते (३०६८) ।
जिस प्रकार रोगी, वैद्य के उपदेश के अनुसार आचरण करके नीरोग बनता है; किन्तु रोगी, वैद्य के वेश-आचार आदि का अनुसरण नहीं करता । वैद्य के वेश एवं आचरण का अनुसरण करने में कोई विशेषता भी नहीं । उनके उपदेश के अनुसरण में लाभ है । इसी प्रकार तीर्थङ्कर भी भवरोग के वैद्य हैं । अतः तीर्थङ्कर-रूपी वैद्य के आदेश का पालन करके भवरोग से मुनि मुक्त होते हैं; किन्तु केवल उनके वेश का अनुकरण तो करे पर उपदेश का पालन न करे, तो भवरोग से मुक्त होता नहीं (३०६९, ३०७०) ।।
शिवभूति-यदि तीर्थङ्कर के वेश का अनुसरण करके उनके समान बनूँ तो क्या आपत्ति
कृष्ण–तीर्थङ्कर परोपदेश के वशवर्ती नहीं हैं। उसी तरह तुम्हें भी परोपदेश के वशवर्ती नहीं होना चाहिये । दूसरी बात यह भी है कि तीर्थङ्कर अपनी छद्मस्थावस्था में किसी को उपदेश भी नहीं देते और दीक्षा भी नहीं देते । उसी तरह सभी करने लग जाएं, तब ही उनके साथ
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