________________
ŚRUTA-SARITĀ
शिवभूति — पर मुनियों के लिये अचेल - परीषह जीतने की बात नही है; यदि वस्त्र का ग्रहण किया जाता है, तो मुनि अचेल परीषह को जीतने वाला नहीं कहा जा सकता ।
278
कृष्ण - एषणीय वस्त्र का उपयोग करने पर भी वह अचेल - परीषह जीतने वाला कहा जा सकता है । जैसे विशुद्ध आहार करने वाला क्षुधा - परीषह को जीतने वाला कहा जाता है, उसी प्रकार विशुद्ध बुद्धि वाला मुनि एषणीय वस्त्र का उपयोग करके भी अचेल परीषह को जीतने वाला कहा जा सकता है (३०७७) । आहार लेने मात्र से किसी को अजित-परीषह मान लिया जाए तो परिस्थिति यह होगी कि जिनेन्द्र को भी सर्वथा जित परीषह नहीं माना जा सकेगा, अथवा आहार लेकर हम 'जित- परीषह' कहते हैं, तो वस्त्र के विषय में भी यही बात क्यों न मानी जाए ? अर्थात् एषणीय वस्त्र का उपयोग करने वाला भी 'जिताचेलपरीषह' क्यों न माना जाएगा ? (३०७८) ।
जिस प्रकार अपनी बुभुक्षा आदि का प्रतीकार आहारादि लेकर करने पर भी यदि रागद्वेष से रहित है, तो मुनि बुभुक्षादि परीषहों को जीतने वाला माना जाता है (३०७९) उसी प्रकार श्रुत - विहित विधि से राग-द्वेष से रहित होकर यदि विशुद्ध वस्त्र को ग्रहण करता है, तो वस्त्र का सेवन करने पर भी अचेल परीषह को जीतने वाला होता है (३०८० ) ।
शिवभूति — सचेल को अचेल - परीषह जीतने वाला कैसे कहा जा सकता है ?
कृष्ण-लोक और सिद्धान्त में चेलक होने पर भी और चेलक नहीं होने पर भी अचेल कहा जाता है । परिशुद्ध अर्थात् एषणीय ऐसा अत्यन्त जीर्ण, कुत्सित, असार अगणनीय अर्थात् अत्यन्त छोटा अथवा तुच्छ और अनियत रूप से उपयोग में आने वाला वस्त्र यदि मुनि के पास हो, तब भी उसे नङ्गा — अचेल मुनि कहा जाता है; क्योंकि मुनि को वस्त्र में मूर्च्छा नहीं है । अचेलक शब्द का यह प्रयोग गौण रूप से है; किन्तु तीर्थङ्कर को वस्त्र ही नहीं, अतः उन्हें मुख्यरूप से अचेल कहा जाता है (३०८१, ३०८२) ।
जिस प्रकार कटिवस्त्र को मस्तक में बान्ध कर बहुवस्त्र वाला व्यक्ति जल में अवगाहन करता हो तो उसे नङ्गा ही कहा जाता है, उसी प्रकार वस्त्र के होने पर भी मुनि अचेल कहा जाता है (३०८३) ।
जैसे किसी स्त्री ने अत्यन्त छोटा, जीर्ण और कुत्सितं, छिद्रों वाला वस्त्र पहना हो, फिर भी वस्त्र को बुनने वाले से कहती है- 'भाई, शीघ्रता से मुझे वस्त्र दे दो मैं नग्न हूँ ।' उसी प्रकार मुनि ने भी यदि छोटा जीर्ण आदि वस्त्र पहना हो, फिर भी अचेल कहा जाएगा (३०८४) । तीन कारणों से आगम में वस्त्र ग्रहण करने को कहा हीं' है । अतएव जो सातिशय नहीं है, उसे वस्त्र धारण करना चहिये (३०८५ ) |
जिनकल्प के योग्य जो नहीं हैं, उन्हें ही लज्जा, कुत्सा और परीषह अवश्य होते हैं; तथा यह भी बात है कि ही का अर्थ है लज्जा और लज्जा ही संयम है । अतः संयम के लिये भी वस्त्र को विशेषरूप से धारण करना जरूरी है (३०८६) ।
यदि तीर्थङ्करों के मत को प्रमाण मानते हो, तो वस्त्र और पात्र का त्याग न करो; क्योंकि
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International