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________________ जैन गुणस्थान और बोधिचर्याभूमि ૨૬૯ बोधिसत्त्व की चर्या में और जैन तीर्थंकर की चर्या में इस दृष्टिभेद के कारण भेद देखा जा सकता है । हीनयानी बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाओं में बोधिसत्त्व की चर्या का अर्थात् पारमिताओं की प्राप्ति का जो निरूपण है. वह महायानी बोधिसत्त्व के आदर्श का प्रतिप हीनयानी बुद्ध का जो चित्र मूलपिटक से उपस्थित होता है उस में जातककथा से फलित होनेवाला बुद्धजीवन दिखाई नहीं देता । किन्तु जैन तीर्थकर के समान उपदेशक प्रधान जीवन दिखाई देता है, बोधिसत्त्व का आदर्श उससे उपस्थित नहीं होता । अर्थात् यह हम कह सकते हैं कि दुःखनिवारण का मार्ग दिखाते हैं किन्तु निवारण में सक्रिय नहीं । किन्तु बोधिसत्त्व या सम्यक्संबुद्ध का महायानसंमत आदर्श तो सक्रिय व्यक्ति उपस्थित करता है । वैसी सक्रिय व्यक्ति बुद्ध की पूर्वजीवन की जातककथा में देखी जाती है, पालिपिटक में अन्यत्र नहीं । यह जातकों में महायान के प्रभाव का द्योतक है । जैन तीर्थकर और हीनयानी बुद्ध दोनों अप ने क्लेश और अज्ञान के निवारण के लिए प्रयत्नशील हैं फिरभी जातकों के बुद्ध और जैनों के द्वारा तीर्थकरचरित में वर्णित पूर्वभवों की कथा द्वारा उपस्थित तीर्थकर में भेद दिखाई देता है । पालिपिटक में मूल में जिस प्रकार बुद्ध की साधना का वर्णन है वह और जैन आगम मूल तथा वाद के साहित्य में वर्णित पूर्वभवों का तीर्थंकर की साधना का वर्णन एक जैसा कहा सकता है। दोनों में अपने क्लेश और अज्ञान का प्रयत्न स्पष्ट है। जैनों ने वाद के साहित्य में बोधिसत्त्व का मार्ग उपस्थित होनेपर भी ध्येयरूप से उसे स्वीकृत नहीं किया और अपने मोक्ष के महत्त्व को कम करके बोधिसत्त्व के सक्रिय मार्ग को नहीं अपनाया । जब कि बौद्धों ने अपने मोक्ष के महत्त्व के साथ परके दुःखनिवारण के सक्रियमार्ग को अपनाया अवश्य और तदनुसार ही जातकों की रचना की । सारांश यह है कि हीनयानी बोद्धों ने महायान के आदर्श को बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाओं में ले लिया किन्तु बुद्धभव की कथा में उस की कोई असर हो ने नहीं दी । महायान में तो बुद्धचरित की अपेक्षा बोधिसत्त्व का ही चरित बुद्धचरित का स्थान ले लेता है । और बुद्ध को तो लौकिक की अपेक्षा अलौकिक ही बना दिया है । और अवतारवाद को प्रश्रय दे दिया है । जैन तीर्थंकर के जो पूर्वभवों के चरित हैं उन में अप ने ही क्लेश के निवारण का प्रयत्न स्पष्ट है किन्तु जो विशेषता देखी जाती है वह दूसरी ही है । बौद्धों ने चित्त का विश्लेषण करके अभिधर्म लिखा किन्तु जैनों ने कर्म का विश्लेषण किया और उस का एक स्वतंत्र शास्त्र बना लिया और कर्मशास्त्र के मूल सिद्धान्त-जैसे कर्म वैसे फल-को तीर्थकरचरित द्वारा उपस्थित किया । जातकों में बोधिसत्त्व एक ऐसा व्यक्ति है जो अपने गुणों का प्रदर्शन करता है किन्तु जैन तीर्थकर के पूर्वभव की कथा तो-ऐसे व्यक्ति को उपस्थित करती है जो सामान्य मानवी है जिस में गुणदोष दोनों हैं । और जो अप ने दोषों के कारण नानाभव करता है और अप ने कर्म का फल भोगता है । तात्पर्य यह है कि पूर्वभवों का वर्णन इस दृष्टि को समक्ष रखकर किया गया है कि व्यक्ति छोटा हो या बड़ा वह अप ने कर्म का फल अवश्य पाता है । अतएव साधक को चाहिए कि बूरे कर्मों से बचें, अकर्म न हो सके तो सत्कर्म करें किन्तु बूरे कर्म तो करे नहीं । किसी गुण की वृद्धि करके पराकाष्ठा तक पहुँचाना, पारमिता प्राप्त Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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