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________________ ŚRUTA-SARITĀ कभी अनुसरण नहीं करता तो उस की क्या गति हो— ऐसे प्रश्न के उत्तर की तलाश में से भव्यअभव्य और गोत्र - अगोत्र की कल्पना का जन्म हुआ होगा—ऐसा संभवित है । भव्य और गोत्र में से भी सभी मोक्ष या निर्वाण को प्राप्त होंगे ही—ऐसा भी नियम नहीं है । योग्यता हो ने पर भी उस योग्यता के कार्यकारी होने का अनिवार्य नहीं—ऐसा भी जैन-बौद्ध दोनों ने माना है । जैन ऐसे भव्यों को दुर्भव्य कहते हैं, और बौद्धों में उसे आत्यन्तिक अनैर्यानिक बोधिचित्त कहा है । जब कि निर्वाण प्राप्त करनेवालों को नैर्यानिक बोधिचित्त की संज्ञा दी है । इस कल्पना का मूल अनुभव में है । लोक में देखा जाता है कि बीज में अंकुरोत्पादन की योग्यता तो है किन्तु कारण सामग्री का प्राप्ति न हो ने से अंकुर होता नहीं है । ऐसी ही बात दुर्भव्य और अनैर्यानिक के लिए कही जा सकती है । 268 जैनों के अनुसार भव्य जब अपना ध्येय सिद्ध पर लेता है तब वह केवली होकर निर्वाण प्राप्त कर लेता है । ऐसे केवली के भी दो भेद किए गए हैं : सामान्य केवली और तीर्थंकर । सामान्य केवली धर्मशासन की स्थापना नहीं करता जब कि तीर्थंकर धर्मशासन की स्थापना करता है । हीनयानी बौद्धों में भी अर्हत या प्रत्येकबुद्ध और बुद्ध ऐसे दो प्रकार की कल्पना है । अर्हत धर्मचक्र का प्रवर्तन नहीं करता और बुद्ध धर्मचक्र का प्रवर्तन करता है । जैनों ने तीर्थंकर को - अर्हत भी कहा है । महायानी बौद्धों ने बुद्धप्राप्ति पर भार न देकर बोधिसत्त्व की चर्या पर भार दिया और यह आदर्श उपस्थित किया कि बोधिसत्त्व सम्यक् संबुद्ध होना चाहता है किन्तु जब तक संसार में सभी प्राणीओं की मुक्ति नहीं हो जाती तब तक वह अपना निर्वाण नहीं चाहता । इस प्रकार जैन तीर्थंकर या हीनयानी के अर्हत की अपेक्षा महायानी धर्म में बोधिसत्त्व की ही प्रतिष्ठा को बढ़ाया । और आग्रह रखा कि बोधिचर्या का आदर्श केवल अपना मोक्ष ही नहीं होना चाहिए किन्तु समग्र प्राणी की मुक्ति होना चाहिए । यह मन्तव्य हीनयान ओर जैन दोनों के आदर्श से आगे बढ़ गया । जैनों के तीर्थकर और हीनयान के बुद्ध — ये दोनों अप ने मोक्ष को महत्त्व देते हैं, शासन की स्थापना प्रासंगिक है । जैनसंमत अन्य सामान्य केवली या हीनयान के प्रत्येक बुद्ध शासन की स्थापना नहीं करते यानि मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं देते और तीर्थंकर या बुद्ध मोक्षमार्ग का उपदेश देते है इस भेद का यही कारण माना गया है कि साधना के प्रारम्भ में अप ने और पर के कल्याण की दृष्टि होना या न होना यह है । किन्तु हीनयानी बुद्ध या जैन तीर्थंकर अपना निर्वाण स्थगित नहीं करते या स्थगित करने की भावना भी नहीं रखते किन्तु महायानी का बोधिसत्त्व अप ने निर्वाण के लिए उतावला है ही नहीं । उसने तो समग्र प्राणी की मुक्ति अपना ध्येय बना लिया है । यही दोनों के आदर्श में भेद उपस्थित करता है । जैन तीर्थंकर उपदेशक अवश्य है । किन्तु अन्य के मोक्ष के लिए क्रियाशील नहीं है । हीनयानी बुद्ध की भी वही स्थिति है । जब कि बोधिसत्त्व केवल उपदेश देकर संतुष्ट नहीं हो जाता प्राणिओं के कष्टों का निवारण अपने प्राण गँवा कर भी करना बोधिसत्त्व को इष्ट है । और सम्यक्संबुद्ध को भी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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