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________________ 270 ŚRUTA-SARITĀ करलेना-यह जातक कथाओं का रहस्य कहा जा सकता है तो तीर्थंकर के पूर्वभवों का इतना ही रहस्य है कि तीर्थंकर को भी अप ने कर्म के फल भोग ने पड़ते हैं । किसी खास विशेषगुण की उत्तरोत्तरवृद्धि और पराकाष्ठा कैसे होती है-यह दिखाना तीर्थंकर चरित के पूर्वभवों का उद्देश फलित नहीं होता । यही कारण है कि बोधिचर्या और तीर्थकरचर्या में भी भेद हो गया । जैनों ने आत्मा की उन्नति का क्रम कर्म के क्षय के क्रम से वर्णित किया है जबकि बोधिचर्या में गुणवृद्धि की और ध्यान केन्द्रित है । किन्तु अन्त में जाकर आवरणनिराकरण दोनों में समानरूप से माना गया है । जैन योगसाधना और बौद्ध योगसाधना में जो मौलिक भेद है, उस का विचार करना जरूरी है । हीनयान की साधना और महायान की साधना में भी भेद है । योगसाधना में जैन बौद्ध दोनों में जो साम्य है वह इतना ही कि बोधिलाभ या सम्यग्दृष्टि के विना योगसाधना में प्रवेश ही नहीं मिल सकता है । मिथ्यादृष्टि का त्याग ही बौद्ध हीनयान, महायान दोनों की प्रथम शर्त है । मिथ्यादृष्टि का त्याग ही जैनसाधना की भी प्रथम शर्त है । यही सम्यग्दृष्टि एक ऐसी है जो दोनों के अनुसार जन्म जन्मान्तर में साथ रह सकती है । उसके बाद की जितनी भी योग्यता सम्यक्संबोधि के लिए बौद्धों ने और केवलज्ञान के लिए जैनों ने मानी है उसके विषय में बौद्धों की मान्यता है कि वह योग्यता कई जन्म-जन्मान्तरों में प्राप्त हो सकती है उन का विकास भी कई जन्म-जन्मान्तरो में हो सकता है । जब कि जैनों का मानना है कि सम्यग्दृष्टि के अलावा जो भी योग्यता प्राप्त की हो, यदि अप ने ध्येय तक पहुँच ने के पहले मृत्यु हो जाय तो वह समाप्त हो जाती है नये जन्म में नये सीरेसे उस योग्यता की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। जैन-बौद्ध दोनों की तत्त्व-व्यवस्था में भी भेद है । अतएव ध्यान का विषय भी भिन्न हो जाता है । इतना ही नहीं किन्तु जैनों में ध्यान की पराकाष्ठा में वस्तु का साक्षात्कार होता है तो महायानी और हीनयानी दोनों बौद्धों में वस्तु का प्रतिभास ध्यान की पराकाष्ठा में स्थान ही नहीं पाता । इस प्रक्रियाभेद के कारण जैन और बौद्ध को मान्य साधना के सोपानों में भेद पड़ जाता है। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि प्रथम क्लेशावरण का दूर होना और बाद में ज्ञानावरण या ज्ञेयावरण का दूर होना इस मान्यता में जैन और बौद्धों का ऐकमत्य है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि बिना क्लेश के दूर हुए विशुद्धतम ज्ञान का संभव नहीं-यह मान्यता दोनों की समान है और यहाँ आकर समग्र भारतीय योग परम्परा का भी ऐकमत्य है । टिप्पण :१. वाराणसेय संस्कृत विश्व विद्यालय में ता. २१-२-७१के दिन होनेवाले बौद्ध योग तथा अन्य भारतीय साधनाओं का समीक्षात्मक अध्ययन सेमिनारके लिए लिखा गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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