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________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन ૨૫૯ अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक दो दार्शनिक द्वात्रिंशिकाएँ रची । उनमें से अन्ययोगव्यवच्छेदिका की टीका मल्लिषेणकृत स्याद्वादमञ्जरी अपनी प्रसन्न गम्भीर शैली तथा सर्वदर्शनसारसंग्रह के कारण प्रसिद्ध है । शान्त्याचार्य इस युग में हेमचन्द्र के समकालीन और उत्तरकालीन कई आचार्यों ने प्रमाणशास्त्र के विषय में लिखा है उनमें शान्त्याचार्य जो १२ वीं शताब्दी में हुए अपना खास स्थान रखते हैं । उन्होंने न्यायावतार का वार्तिक स्वोपज्ञ टीका के साथ रचा; और अकलङ्क स्थापित प्रमाणभेदों का खण्डन करके न्यायावतार की परम्परा को फिर से स्थापित किया । रत्नप्रभ देवसूरि के ही शिष्य और स्याद्वादरत्नाकर के लेखन में सहायक रत्नप्रभसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर में प्रवेश की सुगमता की दृष्टि से अवतारिका बनाई । उसमें संक्षेप से दार्शनिक गहन वादों की चर्चा की गई है । इस दृष्टि से अवतारिका बनाई । उसमें संक्षेप से दार्शनिक गहन वादों की चर्चा की गई है। इस दृष्टि से अवतारिका नाम सफल है, किन्तु भाषा की आडम्बरपूर्णता ने उसे रत्नाकर से भी कठिन बना दिया है । फिर भी वह अभ्यासीओं के लिए काफी आकर्षण की वस्तु रही है । इसका अन्दाजा उसकी टीकोपटीका की रचना से लगाना सहज है । इसी रत्नाकरावतारिका के बन जाने से श्वेताम्बराम्नाय से स्याद्वादरत्नाकर का पठनपाठन वन्द हो गया । फलतः आज स्याद्वादरत्नाकर जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की सम्पूर्ण एक भी प्रति प्रयत्न करने पर भी अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है । सिंह-व्याघ्राशिशु वादी देव के ही समकालीन आनन्दसूरि और अमरसूरि हुए जो अपनी बाल्यावस्था ही से बाद में प्रवीण थे और उन्होंने कई वादियों को वाद में पराजित किया था । इसी के कारण दोनों को सिद्धराज ने क्रमशः 'व्याघ्रशिशुक' और 'सिंहशिशुक' की उपाधि दी थी । इनका कोई ग्रन्थ अभी उपलब्ध नहीं यद्यपि अमरचन्द्र का सिद्धान्तार्णव ग्रन्थ था । सतीशचन्द्र विद्याभूषण का अनुमान है कि गंगेश ने सिंह-व्याघ्र व्याप्तिलक्षण नामकरण में इन्हीं दोनों का उल्लेख किया हो, यह सम्भव है। रामचन्द्र आदि आचार्य हेमचन्द्र के विद्वान् शिष्यमण्डल में से रामचन्द्र-गुणचन्द्रने संयुक्तभाव से द्रव्यालङ्कार नामक दार्शनिक कृति का निर्माण किया है, जो अभी तक अप्रकाशित है । सं. १२०७ में उत्पादादिसिद्धि की रचना श्री चन्द्रसेन आचार्य ने की इसमें वस्तु का उत्पाद-व्यय-धौव्यरूप त्रिलक्षण का समर्थन करके अनेकान्तापवाद की स्थापना की गई है । - चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में अभयतिलक ने न्यायालङ्कार टिप्पण लिखकर हरिभद्र के समान उदारता का परिचय दिया । यह टिप्पण न्यायसूत्र की क्रमिक पाँचों टीका-भाष्य, वार्तिक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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