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ŚRUTA-SARITĀ
के आसपास प्रमालक्ष्म नामक न्यायावतार के वार्तिक की रचना की । इसमें अन्य दर्शनों के प्रमाणभेद और लक्षणों का खण्डन करके न्यायावतार संमत परोक्ष के दो भेद स्थिर किये गए हैं । यह वार्तिक प्रमेयरत्नकोष जितना संक्षिप्त नहीं और न वादमहार्णव जितना बड़ा । किन्तु मध्यपरिमाण है । विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक की तरह इसकी व्याख्या भी स्वोपज्ञ ही है ।
वि. सं. ११४९ में पौर्णमिकगच्छ के स्थापक आचार्य चन्द्रप्रभसूरि ने प्रमेयरत्नकोष नामक एक संक्षिप्त ग्रन्थ लिखा है । विस्तीर्ण समुद्र के अवगाहन में जो अशक्त हैं ऐसे मन्दबुद्धि अभ्यासी के लिए यह ग्रन्थ नौका का कार्य देने वाला है । इसमें कुछ वादों को सरल और संक्षिप्त रूप में ग्रथित किया गया है ।।
चन्द्रप्रभसूरि के ही समकालीन आचार्य अनन्तवीर्य ने भी प्रमेयकमलमार्तण्ड के प्रखर प्रकाश से चकाचौंध हो जाने वाले अल्पशक्ति जिज्ञासु के हितार्थ सौम्य प्रभायुक्त छोटी-सी प्रमेयरत्नमाला का परीक्षामुख की टीका के रूप में गुम्फन किया । वादी देवसूरि
___ अपने समय तक प्रमाणशास्त्र और अनेकान्तवाद में जितना विकास हुआ था, तथा अन्य दर्शन में जितनी दार्शनिक चर्चाएँ हुई थी उन सभी का संग्रह करके स्याद्वादरत्नाकर नामक बृहत्काय टीका वादी देवसूरि ने स्वोपज्ञ प्रमाणनयतत्त्वावलोक नामक सूत्रात्मक ग्रन्थ के ऊपर लिखी । इस ग्रन्थ के पढने में न्यायमञ्जरी के समान काव्य का रसास्वाद मिलता है । वादीदेव ने प्रभाचन्द्रकृत स्त्रीमुक्ति और केवलिमुक्ति की साम्प्रदायिक चर्चा का भी श्वेताम्बर दृष्टि से उत्तर दिया है। उनका प्रमाणनयतत्त्वावलोक परीक्षामुख का अनुकरण तो है ही किन्तु नयपरिच्छेद और वादपरिच्छेद नामक दो प्रकरण जो परीक्षामुख में नहीं थे, उनका इसमें सन्निवेश इसकी विशेषताएँ भी है । स्याद्वादरत्नाकर में प्रमेयकमलमार्तण्डादि अन्य ग्रन्थगत वादों का शब्दत: या अर्थत: उद्धरण करके ही वादी देवसूरि सन्तुष्ट नहीं हुए हैं किन्तु प्रभाचन्द्रादि अन्य आचार्यों ने जिन दार्शनिकों के पूर्वपत्रों का उत्तर नहीं दिया था, उनका भी समावेश करके उनको उत्तर दिया है और इस प्रकार अपने समय तक की चर्चा को सर्वांश में सम्पूर्ण करने का प्रयत्न किया है । इनका जन्म वि. ११४३ और मृत्यु १२२६ में हुई । हेमचन्द्र और मल्लिषेण
वादी देवसूरि के जन्म के दो वर्ष बाद वि. ११४५ में सर्वशास्त्रविशारद आचार्य हेमचन्द्र का जन्म और वादी देवसूरि की मृत्यु के तीन वर्ष बाद उनकी मृत्यु हई है (१२२९) । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने समय तक के विकसित प्रमाणशास्त्र की सारभूत बातें लेकर प्रमाणमीमांसा की सूत्रबद्ध ग्रन्थ के रूप में रचना की है; और स्वयं उसकी व्याख्या की है। हेमचन्द्र ने अपनी प्रतिभा के कारण कई जगह अपना विचार-स्वातन्त्र्य भी दिखाया है । व्याख्या में भी उन्होंने अति संक्षेप या अति विस्तार का त्याग करके मध्यमार्ग का अनुसरण किया है । जैन न्यायशास्त्र के प्रवेश के लिए यह अतीव उपयुक्त ग्रन्थ है । दुर्भाग्यवश यह ग्रन्थ अपूर्ण ही उपलब्ध है । आचार्य हेमचन्द्र ने समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन का अनुकरण करके अयोगव्यवच्छेदिका और
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