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________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन ૨૫૫ "पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥" लोकतत्त्वनिर्णय । विद्यानन्द इसी काल में विद्यानन्द हुए । यह युग यद्यपि प्रमाणशास्त्र का था, तथापि इस युग में पूर्व भूमिका के ऊपर अनेकान्तवाद का विकास भी हुआ है । इस विकास में विद्यानन्दकृत अष्टसहस्त्री अपना खास स्थान रखती है । विद्यानन्द ने तत्कालीन सभी दार्शनिकों के द्वारा अनेकान्तवाद के ऊपर किये गये आक्षेपों का तर्कसंगत उत्तर दिया है । अष्टसहस्री कष्टसहस्री के नाम से विद्वानोत्न में प्रसिद्ध है । विद्यानन्द की विशेषता यह है कि प्रत्येक वादी का उत्तर देने के लिए प्रतिवादी खडा कर देना । यदि प्रतिवादी उत्तर दे और तटस्थ व्यक्ति वादि-प्रतिवादी दोनों की निर्बलता को जब समझ जाय तभी विद्यानन्द अनेकान्तवाद के पक्ष को समर्थित करता है इससे वाचक के मन पर अनेकान्तवाद का औचित्य पूर्णरूप से अँच जाता है । . विद्यानन्द ने इस युग के अनुरुप प्रमाणशास्त्र के विषय में भी लिखा है । इस विषय में उनका स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रमाणपरीक्षा है । तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में भी उन्होंने प्रमाणशास्त्र से सम्बद्ध अनेक विषयों की चर्चा की है । इसके अलावा आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनटीका आदि ग्रन्थ भी विद्यानन्द ने लिखे हैं । वस्तुतः अकलंक के भाष्यकार विद्यानन्द हैं । अनन्तकीर्ति ___ इन्हीं के समकालीन आचार्य अनन्तकीर्ति है । उन्होंने सिद्धिविनिश्चय के आधार से सिद्धान्त ग्रन्थों की रचना की है । सिद्धिविनिश्चय में सर्वज्ञसिद्धि एक प्रकरण है । मालूम होता है उसी के आधार पर उन्होंने लघुसर्वज्ञसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि नामक दो प्रकरण ग्रन्थ बनाए । तथा सिद्धिविनिश्चय के जीवसिद्धिप्रकरण आधार पर जीवसिद्धि नामक ग्रन्थ बनाया । जीवसिद्धि उपलब्ध नहीं है। सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्य द्वारा उल्लिखित अनन्तकीर्ति यही हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । वादिराज ने भी जीवसिद्धि के कर्ता एक अनन्तकीर्ति का उल्लेख किया है । शाकटायन इसी युग की एक और विशेषता पर भी विद्वानों का ध्यान दिलाना आवश्यक है । जैन दार्शनिक जब वादप्रवीण हुए तब जिस प्रकार उन्होंने अन्य दार्शनिकों के साथ विवाद में उतरना शुरु किया इसी प्रकार जैन सम्प्रदाय गत मतभेदों को लेकर आपस में भी वादविवाद शुरु कर दिया । परिणामस्वरूप इसी युग में यापनीय शाकटायन ने स्त्रीमुक्ति और केवलिमुक्ति नामक स्वतन्त्र प्रकरणों की रचना की जिनके आधार पर श्वेताम्बरों और दिगम्बरों के पारस्परिक खण्डन ने अधिक जोर पकड़ा । शाकटायन अमोघवर्ष का समकालीन है क्योंकि इन्हीं की स्मृति में शाकटायन ने अपने अमोघवृत्ति बनाई है । अमोघवर्ष का राज्यकाल वि. ८७१-९३४ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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