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ŚRUTA-SARITĀ
अनन्तवीर्य
अकलङ्क के सिद्धिविनिश्चय की टीका अनन्तवीर्य ने लिखकर अनेक विद्वानों के लिए कंटकाकीर्ण मार्ग को प्रशस्त किया है । प्रभाचन्द्र ने इनका स्मरण किया है । तथा शान्त्याचार्य ने भी इनका उल्लेख किया है । इनके विवरण के अभाव में अकलङ्क के संक्षिप्त और सारगर्भ सूत्रवाक्य का अर्थ समझना ही दुस्तर हो जाता । जो कार्य अष्टशती की टीका अष्टसहस्री लिखकर विद्यानन्द ने किया वही कार्य सिद्धिविनिश्चय का विवरण लिखकर अनन्तवीर्य ने किया, इसी भूमिका के बल से आचार्य प्रभाचन्द्र का अकलङ्क के ग्रन्थों में प्रवेश हुआ और न्यायकुमुदचन्द्र जैसा सुप्रसन्न और गम्भीर ग्रन्थ अकलङ्ककृत लघीस्त्रय की टीका से उपलब्ध हुआ । माणिक्यनन्दी और सिद्धर्षि
अकलंक ने जैन प्रमाणशास्त्र जैन न्यायशास्त्र को पक्की स्वतन्त्रभूमिका पर स्थिर किया यह कहा जा चुका है । माणिक्यनन्दी ने दसवीं शताब्दी में अकलंक के वाङ्मय के आधार पर ही एक 'परीक्षामुख' नामक ग्रंथ की रचना की । परीक्षामुख ग्रन्थ जैन न्यायशास्त्र के प्रवेश के लिए अत्यन्त उपयुक्त ग्रन्थ है, इतना ही नहीं किन्तु उसके बाद होने वाले कई सूत्रात्मक या अन्य जैन प्रमाण ग्रन्थों के लिए आदर्शरूप भी सिद्ध हुआ है, यह निःसन्देह है ।
सिद्धर्षि ने इसी युग में न्यायावतार टीका लिख कर संक्षेप में प्रमाणशास्त्र का सरल और मर्मग्राही ग्रन्थ विद्वानों के सामने रखा है । किन्तु इसमें प्रमाणभेदों की व्यवस्था अकलंक से भिन्न प्रकार की है । इसमें परोक्ष के मात्र अनुमान और आगम ये दो भेद ही माने गये हैं । अभयदेव
अभयदेव ने सन्मतिटीका में अनेकान्तवाद का विस्तार और विशदीकरण किया है क्योंकि यही विषय मूल सन्मति में है । उन्होंने प्रत्येक विषय को लेकर लम्बे-लम्बे वादविवादों की योजना करके तत्कालीन दार्शनिक सभी वादों का संग्रह विस्तारपूर्वक किया है । योजना में क्रम यह रक्खा है कि सर्वप्रथम निर्बलतम पक्ष उपस्थित करके उसके प्रतिवाद में उत्तरोत्तर ऐसे प्रश्नों को स्थान दिया है, जो क्रमशः निर्बलतर, निर्बल, सबल और सबलतर हों । अन्त में सबलतम अनेकान्तवाद के पक्ष को उपस्थित करके उन्होंने उस वाद का स्पष्ट ही श्रेष्ठत्व सिद्ध किया है । सन्मतिटीका को तत्कालीन सभी दार्शनिक ग्रन्थों के दोहनरूप कहें तो उचित ही है । अनेकान्तवाद के अतिरिक्त तत्कालीन प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और फल विषयक प्रमाणशास्त्र की चर्चा को भी उन्होंने उक्त क्रम से ही रख कर जैन दृष्टि से होने वाले प्रमाणादि के विवेचन को उत्कृष्ट सिद्ध किया है । इस प्रकार इस युग की प्रमाणशास्त्र की प्रतिष्ठा में भी उन्होंने अपना हिस्सा अदा किया है।
अभयदेव का समय वि. १०५४ से पूर्व ही सिद्ध होता है क्योंकि उनका शिष्य आचार्य धनेश्वर मुंज की सभा में मान्य था और इसी के कारण धनेश्वर का गच्छ राजगच्छ कहलाया है । मुंज की मृत्यु वि. १०५४ के आसपास हुई है ।
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