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________________ ŚRUTA-SARITĀ इससे स्पष्ट है कि नन्दीकार ने इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों में रक्खा । ज्ञान द्विरूप तो हो ही नहीं सकता अतएव, जिनभद्र ने स्पष्टीकरण किया है कि इन्द्रिय ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मान करके नन्दीकार ने उसे प्रत्यक्ष में भी गिना है वस्तुतः वह परोक्ष ही है । नन्दीकार से पहले भी इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाणान्तर्गत करने की प्रथा चल पड़ी थी इसका पता नन्दीसूत्र से भी प्राचीन अनुयोगद्वारसूत्र से चलता है । नन्दीकार ने तो उसी का अनुकरण मात्र किया है ऐसा जान पडता है । अनुयोग में प्रमाण विवेचन के प्रसंग में निम्न प्रकार से वर्गीकरण है- ज्ञानप्रमाण 254 प्रत्यक्ष अनुमान उपमान आगम इन्द्रिय प्रत्यक्ष नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष श्रोत्रे चक्षु, घ्राण. जिह्वा. स्पर्शन अवधि, मनः केवल इससे स्पष्ट है कि अकलंक ने प्रत्यक्ष का जो सांव्यवहारिक भेद बताया है, वह आगमानुकूल ही है, वह उनकी नई सूझ नहीं । किन्तु स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तर्क, अनुमान और आगम रूप परोक्ष के पाँच भेदों का मति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध और श्रुत के साथ समीकरण ही उनकी मौलिक सूज्ञ है । मतु, संज्ञा आदि शब्दों को उमास्वाति ने एकार्थ बताया है और भद्रबाहु ने भी वैसा ही किया है । किन्तु जिनभद्र ने उन शब्दों को विकल्प से नानार्थक मान कर मत्यादि ज्ञानविशेष भी सिद्ध किया है । कुछ ऐसी ही परम्परा के आधार पर सकलंक ने ऐसा समीकरण उचित समझा होगा । इस प्रकार समीकरण करके अकलङ्क ने प्रमाण के भेदापभेद की तथा प्रमाण के लक्षण, फल, प्रमाता और प्रमेय की जो व्यवस्था की, वही अभी तक मान्य हुई है । अपवाद सिर्फ है तो न्यायावतार और उसके टीकाकारों का है । न्यायवतार में प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण माने गए थे, अतएव उसके टीकाकार भी इन तीनों के ही पृथक् प्रामाण्य का समर्थन करते हैं । हरिभद्र ने प्रमाणाशास्त्र का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं बनाया, किन्तु शास्त्रवार्तासमुच्चय में तथा षड्दर्शनसमुच्चय में उन्होंने तत्कालीन सभी दर्शनों के प्रमाणों के विषय में भी विचार किया है । इसके अलावा षोडशक, अष्टक आदि ग्रन्थों में भी दार्शनिक चर्चा उन्होंने की है । लोकतत्त्वनिर्णय समन्वय की दृष्टि से लिखी गई उनकी छोटी-सी कृति है । योगमार्ग के विषय में वैदिक और बौद्धवाड्मय में जो कुछ लिखा गया था उसका जैन- दृष्टि से समन्वय करना हरिभद्र की जैनशास्त्र को खास देन है । इस विषय के योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय योगविंशिका षोडशक आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । उन्होंने प्राकृत भाषा में भी धर्मसंग्रहणी में जैनदर्शन का प्रतिपादन किया है । उनकी आगमों पर लिखी गई दार्शनिक टीकाओं का उल्लेख हो चुका है । तत्त्वार्थ टीका के विषय में भी लिखा जा चुका है । हरिभद्र की प्रवृत्ति के अनुरूप उनका यह वचन सभी को उनके प्रति आदरशील बनाता है— Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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