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जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
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यह है कि पंक्ति में तो किसी एक वाद को प्रथम स्थान देना पडता है और किसी एक को अन्तिम । उत्तरोत्तर खंडन करने पर अन्तिम वाद को विजयी घोषित करना प्राप्त हो जाता है । किन्त यदि इन वादों को चक्रबद्ध किया जाय तो वादों का अन्त भी नहीं और आदि भी नहीं । सुमीते के लिए किसी एक वाद की स्थापना प्रथम की जा सकती है और किसी एक पक्ष को अन्त में रक्खा जा सकता है, किन्तु चक्र बद्ध होने से उस अन्तिम के भी उत्तर में प्रथमवादी ही ठहरता है और वही उस अन्तिम का खंडन करता है और इस प्रकार एकान्तवादियों के खंडनमंडन का चक्र मिलता है । अनेकान्तवाद ही इन सभी वादों का समन्वय कर सकता है । आचार्य ने इन सभी को चक्रबद्ध करके यही सूचित किया है अपनी अपनी दृष्टि से वे सभी वाद सच्चे हैं, किन्तु दूसरों की दृष्टि में मिथ्या ठहरते हैं । अतएव नयवाद का उपयोग करके इन सभी वादों का समन्वय करना चाहिए; और उनकी सच्चाई यदि है तो किस नय की दृष्टि से है उसे विचारना चाहिए । मल्लवादी ने प्रत्येक वाद को किसीने नयान्तर्गत करके सभी वादों के स्रोत को अनेकान्तवाद रूपी महासमुद्र में मिलाया है, जहाँ जाकर उनका पृथगस्तित्व मिट जाता है और सभी वादों का समन्वयरूप एक महासमुद्र ही दिखाइ देता है । नयचक्र की एक और भी विशेषता है और वह यह कि उसमें इतर दर्शनों में भी किस प्रकार अनेकान्तवाद को अपनाया गया है उसे दिखाया है।
इस नयचक्र के ऊपर सिंह क्षमाश्रमण ने १८००० श्लोक प्रमाण बृहत्काय टीका की है । . उनका समय सातवीं शताब्दी से उत्तर में हो नहीं सकता क्योंकि उन्होंने दिङ्नाग और भर्तृहरि के तो कई उदाहरण दिये हैं किन्तु धर्मकीर्ति के ग्रन्थ का कोई उदाहरण नहीं । और न कुमारिल का ही उसमें कहीं नाम है । उसमें समन्तभद्र का भी कोई उदाहरण नहीं, किन्तु सिद्धसेन और उनके ग्रन्थों का उदाहरण बार-बार है । नयचक्रटीका का संपादन मुनि श्री जम्बूविजयजी कर
पात्रकेसरी
इसी युग में एक और तेजस्वी दिगम्बर विद्वान् पात्रस्वामी हुए जिनका दूसरा नाम पात्रकेसरी था । इन्होंने 'त्रिलक्षण कदर्थन' नामक एक ग्रन्थ लिखा है । इस युग में प्रमाणशास्त्र से सीधा सम्बन्ध रखने वाली दो कृतियाँ हुई—एक सिद्धसेन कृत न्यायावतार और दूसरी कृति के विलक्षण का खण्डन किया गया है और जैनदृष्टि से अन्यथानुपपत्ति रूप एक ही हेतुलक्षणसिद्ध किया गया हैं । जैन न्यायशास्त्र में हेतु का यही लक्षण न्यायावतार में और अन्यत्र मान्य है। यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । (३) प्रमाणशास्त्र-व्यवस्थायुग । हरिभद्र और अकलंक
असङ्ग-वसुबन्धु ने विज्ञानवाद की स्थापना की थी, किन्तु स्वतन्त्र बौद्ध दृष्टि से प्रमाणशास्त्र की रचना व स्थापना का कार्य तो दिग्नाग ने ही किया । अतएव वह बौद्ध तर्कशास्त्र का पिता माना जाता है । उन्होंने तत्कालीन नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि दर्शनों
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