SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 250 ŚRUTA-SARITĀ के रूप में किया जाता है, अर्थात् इन्हीं दो विरोधी वादों के मूल में रख कर सप्तभंगी की योजना की जाती है तो ये विरोधी वाद भी अविरुद्ध हो जाते हैं, निर्दोष हो जाते हैं । भगवान् के प्रवचन की यही विशेषता है। सर्वप्रथम ऐसा समन्वय उन्होंने भावैकान्त और अभावैकान्तवाद को लेकर किया है । अर्थात् सत् और असत् को लेकर सप्तभंगी का समर्थन करके उन्होंने सिद्ध किया है कि ये सदद्वैत और शून्यवाद तभी तक विरोधी हैं जब तक वे अलग-अलग हैं किन्तु जब वे अनेकान्तरूपी मुक्ताहार के एक अंगरूप हो जाते हैं तब उनमें कोई विरोध नहीं । इसीप्रकार उन्होंने द्वैतवाद और अद्वैतवाद आदि का भी समन्वय कर लेने की सूचना की है । सिद्धसेन ने नयों का सुन्दर विश्लेषण किया तो समन्तभद्र ने उन्हीं नयों के आधार पर प्रत्येक वादों में स्याद्वाद की संगति कैसे बैठाना चाहिए इसे विस्तार से युक्तिपूर्वक सिद्ध किया है । प्रत्येक दो विरोधी वादों को लेकर सप्तभङ्गों की योजना किस प्रकार करना चाहिए इसके स्पष्टीकरण में ही समन्तभद्र की विशेषता है । उक्त वादों के अलावा नित्यैकान्त और अनित्यैकान्त; कार्य-कारण का भेदैकान्त और अभेदैकान्त; गुण-गुणी का भेदैकान्त और अभेदैकान्त; सामान्य-सामान्यवत् का भेदैकान्त और अभेदैकान्त; सापेक्षवाद और निरपेक्षवाद; हेतुवाद और अहेतुवाद; विज्ञप्तिमात्रवाद और बहिरंगार्थतैकान्तवाद; दैववाद और पुरुषार्थवाद; पर को सुख देने से पुण्य हो, दुःख देने से पाप हो-ऐसा एकान्तवाद और स्व को दुःख देने से पुण्य हो, सुख देने से पाप हो ऐसा एकान्तवाद; अज्ञान से बन्ध हो ऐसा एकान्त और स्तोकज्ञान से मोक्ष ऐसा एकान्त; वाक्यार्थ के विषय में विधिवाद और निषेधवाद-इन सभी वादों में युक्ति के बल से संक्षेप में दोष दिखा कर अनेकान्तवाद की निर्दोषता सिद्ध की है, प्रसंग से प्रमाण, सुनय और दुर्नय, स्याद्वाद इत्यादि अनेक विषयों का लक्षण करके उत्तर काल के आचार्यों के लिए विस्तृत चर्चा का बीजवपन किया है । मल्लवादी और सिंहगणी सिद्धसेन के समकालीन विद्वान् मल्लवादी हुए हैं । वे वादप्रवीण थे अतएव उनका नाम मल्लवादी था । उन्होंने सन्मतितर्क की टीका का है । तदुपरान्त नयचक्र नामक एक अद्भुत ग्रन्थ की रचना की । ये श्वेताम्बराचार्य थे । किन्तु अकलंकादि दिगम्बराचार्यों ने भी इनके नयचक्र का बहुमान किया है । तत्कालीन सभी दार्शनिकवादों को नयों के अन्तर्गत बता करके उन्होंने एक वादचक्र की रचना की है । उस चक्र में उत्तर उत्तर वाद पूर्व पूर्व वाद का विरोध करके अपने-अपने पक्ष को सबल सिद्ध करता है । ___ग्रन्थकार का तो उद्देश्य यह है कि ये सभी एकान्तवाद अपने आपको पूर्ववाद से प्रबल समझते हैं किन्तु अपने वाद से दूसरे उत्तरवाद के अस्तित्वका खयाल वे नहीं रखते । एक तटस्थ व्यक्ति ही इस चक्रान्तर्गत प्रत्येक वाद की आपेक्षिक सबलता या निर्बलता जान सकता है; और वह तभी जब उसे पूरा चक्र मालूम हो इन वादों को पंक्तिबद्ध न करके चक्रबद्ध करने का उद्देश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy