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________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन स्वयंभूस्तोत्र में चौबीसों तीर्थंङ्करों की स्तुति की है । वह स्तुति स्तोत्र - साहित्य में अनोखा स्थान रखती है । वह आलङ्कारिक एक स्तुतिकाव्य तो है ही, किन्तु उसकी विशेषता उसमें सन्निहित दार्शनिक तत्त्व में है । प्रत्येक तीर्थंङ्कर की स्तुति में किसी न किसी दार्शनिकवाद का आलङ्कारिक निर्देश अवश्य किया है । युक्त्यनुशासन भी एक स्तुति के रूपमें दार्शनिक कृति है । प्रचलित सभी वादों में दोष दिखाकर यह सिद्ध किया गया है कि भगवान् के उपदेशों में उन दोषों का अभाव है । इतना ही नहीं, किन्तु भगवान् के उपदेश में जो गुण हैं उन गुणों का सद्भाव अन्य किसी के उपदेश में नहीं । तथापि उनकी श्रेष्ठ कृति तो आप्तमीमांसा ही है । ૨૪૯ हम अर्हन्त की ही स्तुति क्यों करते हैं, और दूसरों की क्यों नहीं करते ? इस प्रश्न को लेकर उन्होंने आप्त की मीमांसा की है । आप्त कौन हो सकता है इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सर्वप्रथम तो महत्ता की सच्ची कसौटी क्या हो सकती है, इसका विचार किया है । जो लोग बाह्य आडम्बर या ऋद्धि देखकर किसी को महान् समझ कर अपना आप्त या पूज्य मान लेते हैं उन्हें शिक्षा देने के लिए उन्होंने अरिहन्त को सम्बोधन करके कहा है देवागमनबोयानचामरादिविभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥ देवों का आगमन, नभोयान और चामरादि विभूतियाँ तो मायावी पुरुषों में भी दिखाई देती है । अतएव इतने मात्र से तुम हमारे लिए महान् नहीं हो । फलितार्थ यह है कि श्रद्धाशील लोगों के लिए तो ये बात महत्ता की कसौटी हो सकती है, किन्तु तार्किकों के सामने यह कसौटी चल नहीं सकती । इसी प्रकार शारीरिक महोदय भी महत्ता की कसौटी नहीं, क्योंकि देवलोक के निवासियों में भी शारीरिक महोदय होते हुए भी वे महान् नहीं, क्योंकि उनमें रागादि दोष हैं । तब प्रश्न हुआ कि क्या जो तीर्थंकर या धर्म-प्रवर्तक कहे जाते हैं जैसे बुद्ध, कपिल, गौतम, कणाद, जैमिनी आदि-उन्हें महान् और आप्त माना जाय ? इसका उत्तर उन्होंने दिया है कि ये तीर्थंकर कहे तो जाते हैं किन्तु सिद्धान्त परस्पर विरुद्ध होने से वे भी सभी तो आप्त हो नहीं सकते । किसी एक को ही आप्त मानना होगा । वह एक कौन है, जिसे आप्त माना जाय ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा है कि जिसके मोहादि दोषों का अभाव हो गया है और जो सर्वज्ञ हो गया है वही आप्त हो सकता है। ऐसा निर्दोष और सर्वज्ञ व्यक्ति आप अर्थात् भगवान् वर्धमान आदि अर्हन्त ही हैं, क्योंकि आपका उपदेश प्रमाण से अबाधित है । दूसरे कपिलादि आप्त नहीं हो सकते क्योंकि उनका जो उपदेश है, वह ऐकान्तिक होने से प्रत्यक्ष बाधित हैं । आप्त की मीमांसा के लिए ऐसी पूर्व भूमिका बाँध करके आचार्य समन्तभद्र ने क्रमशः सभी प्रकार के ऐकान्तिक वादों में प्रमाणबाधा दिखाकर समन्वयवाद, अनेकान्तवाद जो कि भगवान् महावीर के द्वारा उपदिष्ट है उसी को प्रमाण से अबाधित सिद्ध करने का सफल प्रयत्न किया है । सिद्धसेन के समान समन्तभद्र का भी यही कहना हैं कि एकान्तवाद का आश्रयण करने पर कुशलाकुशल कर्म की व्यवस्था और परलोक ये बातें असंगत हो जाती हैं । समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में दो विरोधी एकान्तवादों में क्रमशः दोषों को दिखाकर यह बताने का सफल प्रयत्न किया है कि इन्हीं दो विरोधी एकान्तवादों का समन्वय यदि स्याद्वाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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