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ŚRUTA-SARITĀ
जाती है और रसनेन्द्रिय का विषय होती है तब रस कही जाती है, जैसे कि एक ही पुरुष सम्बन्ध के भेद से पिता, मामा आदि व्यपदेशों को धारण करता है । इस प्रकार गुण और द्रव्य का अभेद सिद्ध करके भी एकान्ताभेद नहीं है ऐसा स्थिर करने के लिए फिर कहा कि वस्तु में विशेषताएँ केवल परसम्बन्ध कृत हैं यह बात नहीं है । उसमें तत्तद्रूप से स्वपरिणति भी मानना आवश्यक है । इन परिणामों में भेद बिना माने व्यपदेश भेद भी सम्भव नहीं । अतएव द्रव्य और गुण का भेद ही या अभेद ही है, यह बात नहीं, किन्तु भेदाभेद है । यही उक्त वादों का समन्वय है ।
सिद्धसेन तर्कवादी अवश्य थे, किन्तु उसका मतलब यह नहीं है कि तर्क को वे अप्रतिहतगति समझते थे । तर्क की मर्यादा का पूरा ज्ञान उनकों था । इसीलिए तो उन्हों ने स्पष्ट कह दिया है कि अहेतुवाद के क्षेत्र में तर्क को दखल न देना चाहिए । आगमिक बातों में केवल श्रद्धागम्य बातों मे श्रद्धा से ही काम लेना चाहिए और जो तर्क का विषय हो उसी में तर्क करना चाहिए ।
दूसरे दार्शनिकों की त्रुटि दिखा कर ही सिद्धसेन सन्तुष्ट न हुए। उन्होंने अपना घर भी ठीक किया । जैनों की उन आगमिक मान्यताओं के उपर भी उन्होंने प्रहार किया है, जिनको उन्होंने तर्क से असंगत समझा । जैसे सर्वज्ञ के ज्ञान और दर्शन को भिन्न मानने की आगमिक परम्परा थी, उसके स्थान में उन्होंने दोनों के अभेद की नई परम्परा कायम की । तर्क के बल पर उन्होंने मति और श्रुत के भेद को भी मिटाया । अवधि और मनःपर्याय ज्ञान को एक बताया तथा दर्शन-श्रद्धा और ज्ञान का भी ऐक्य सिद्ध किया । जैन आगमों में नैगमादि सात नय प्रसिद्ध थे । उसके स्थान में उन्होंने उनमें से नैगम का समावेश संग्रह-व्यवहार में कर दिया और मूल नय द्रव्याथिक और पर्यायाथिक मान पर उन्हीं दो के अवान्तर भेद रूप से छ: नयों की व्यवस्था कर दी । अवान्तर भेदों की व्यवस्था में भी उन्होंने अपना स्वातंत्र्य दिखाया है । इतना ही नहीं किन्तु उस समय के प्रमुख जैन संघ को युगधर्म की भी शिक्षा उन्होंने यह कह कर दी है कि सिर्फ सूत्रपाठ याद करके तथा उस पर चिन्तन और मनन न करके मात्र बाह्य अनुष्ठान के बल पर अब शासन की रक्षा होना कठिन है । नयवाद के विषय में गम्भीर चिन्तन-मनन करके अनुष्ठान किया जाय तब ही ज्ञान का फल विरति और मोक्ष मिल सकता है । और इसी प्रकार शासन की रक्षा भी हो सकती है ।
सिद्धसेन की कृतियों में सन्मतितर्क, बत्तीसियाँ और न्यायावतार हैं । सन्मतितर्क प्राकृत में और शेष संस्कृत में हैं ।
सिद्धसेन के विषय में कुछ विस्तार अवश्य हो गया है, किन्तु वह आवश्यक है, क्योंकि अनेकान्तवादरूपी महाप्रासाद के प्रारम्भिक निर्माता शिल्पियों में उनका स्थान महत्त्वपूर्ण है ।
सिद्धसेन के समकक्ष विद्वान् समन्तभद्र हैं । उनको स्याद्वाद का प्रतिष्ठापक कहना चाहिए । अपने समय में प्रसिद्ध सभी वादों की ऐकान्तिकता में दोष दिखाकर उन सभी का समन्वय अनेकान्तवाद में किस प्रकार होता है, यह उन्होंने खूबी के साथ विस्तार से बताया है। उन्होंने
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