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के प्रमेयों का तो खण्डन किया ही किन्तु साथ ही उनके प्रमाणलक्षणों का भी खण्डन किया । इसके उत्तर में प्रशस्त, उद्योतकर, कुमारिल, सिद्धसेन, मल्लवादी, सिंहगणि, पूज्यपाद, समन्तभद्र, ईश्वरसेन, अविद्धकर्ण आदिने अपने-अपने दर्शन और प्रमाणशास्त्र का समर्थन किया । तब दिग्नाग के टीकाकार और भारतीय दार्शनिकों में सूर्य के समान तेजस्वी ऐसे धर्मकीर्ति का पदार्पण हुआ । उन्होंने उन पूर्वोक्त सभी दार्शनिकों को उत्तर दिया और दिग्नाग के दर्शन की रक्षा की और नये प्रकाश में उसका परिष्कार भी किया । इस तरह बौद्ध दर्शन और खासकर बौद्धप्रमाणशास्त्र की भूमिका पक्की कर दी । इसके बाद एक ओर तो धर्मकीर्ति की शिष्य-परम्परा के दार्शनिक अर्चट, धर्मोत्तर, शान्तिरक्षित, प्रज्ञाकर आदि हुए जिन्होंने धर्मकीर्ति के पक्ष की रक्षा की और इस प्रकार बौद्ध प्रमाणशास्त्र को स्थिर किया और दूसरी ओर प्रभाकर, उम्बेक, व्यामशिव, जयन्त, सुमति, पात्रस्वामी, मंडन आदि बौद्धेतर दार्शनिक हुए, बौद्ध पक्ष का खड़न किया और अपने दर्शन की रक्षा की ।
ŚRUTA-SARITA
चार शताब्दी तक चलने वाले इस संघर्ष स्वरूप आठवीं नवीं शताब्दी में जैन दार्शनिकों में हरिभद्र और अकलंक हुए । हरिभद्र और अकलंक हुए । हरिभद्र ने अनेकान्तजयपताका के द्वारा बौद्ध और इतर सभी दार्शनिकों के आक्षेपों का उत्तर दिया और उस दीर्घकालीन संघर्ष के मन्थन में से अनेकान्तवादरूप नवनीत सभी के सामने रक्खा; किन्तु इस युग का अपूर्व फल तो प्रमाणशास्त्र ही है और उसे तो अकलंक की ही देन समझना चाहिए । दिग्नाग से लेकर बौद्ध और बौद्धेतर प्रमाणशास्त्र में जो संघर्ष चला उसके फलस्वरूप अकलंक ने स्वतंत्र जैन दृष्टि से अपने पूर्वाचार्यों की परम्परा को ख्याल रख कर जैन प्रमाणशास्त्र का व्यवस्थित निर्माण और स्थापन किया । उनके प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय आदि ग्रन्थ इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं । अकलंक के पहले न्यायावतार और त्रिलक्षणकदर्थन न्यायशास्त्र के ग्रन्थ थे । हरिभद्र की तरह उन्होंने भी अनेकान्तवाद का समर्थन, विपक्षियों को उत्तर दे करके आप्तमीमांसा की टीका अष्टशती में तथा सिद्धिविनिश्चय में किया है । और नयचक्र की तरह यह भी अनेक प्रसंग में दिखाने का यत्न किया है कि दूसरे दार्शनिक भी प्रच्छन्नरूप से अनेकान्तवाद को मानते ही हैं । हरिभद्र ने स्वतन्त्ररूप से प्रमाणशास्त्र की रचना नहीं की किन्तु दिग्नागकृत (?) न्यायप्रवेश की टीका करके उन्होंने यह सूचित तो किया ही है कि जैन आचार्यों की प्रवृत्ति न्यायशास्त्र की ओर होनी चाहिए तथा ज्ञानक्षेत्र में चौकाबन्दी नहीं चलनी चाहिए । फल यह हुआ कि जैन दृष्टि से प्रमाणशास्त्र लिखा जाने लगा और जैनाचार्यों के द्वारा जैनेतर दार्शनिक या अन्य कृतियों पर टीका भी लिखी जाने लगीं । इसके विषय में आगे प्रसंगात् अधिक कहा
जायगा ।
अकलंक देव ने प्रमाणशास्त्र की व्यवस्था इस युग में की यह कहा जा चुका है । प्रमाणशास्त्र का मुख्य विषय प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और प्रमिति है । इसमें से प्रमाणों की व्यवस्था अकलंक ने इस प्रकार की है—
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