________________
जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
में २- ब्रत का स्वरूप, ब्रत लेने वाले अधिकारियों के भेद और व्रत की स्थिरता के मार्ग । ३- हिंसा आदि दोषों का स्वरूप । ४ - ब्रत में सम्भवित दोष । ५- दान का स्वरूप और उसके तारतम्य के हेतु । आठवें अध्याय में ६ - कर्मबन्धन के मूलहेतु और कर्मबन्धन के भेद । नववें अध्याय में -७ संवर और उसके विविध उपाय तथा उसके भेद-प्रभेद । ८- निर्जरा और उसके उपाय । ९ - जुदे - जुदे अधिकार वाले साधक और उनकी मर्यादा का तारतम्य । दसवें अध्याय में १० - केवल ज्ञान के हेतु और मोक्ष का स्वरूप । ११ - मुक्ति प्राप्त करने वाले आत्मा की किस रीति से कहाँ गति होती है उसका वर्णन |
૨૪૫
इस संक्षिप्त सूची से यह पता लग जायगा कि तत्कालीन ज्ञानविज्ञान की एक भी शाखा अछूती नहीं रही हैं । तत्त्वविद्या, आध्यात्मिक विद्या, तर्कशास्त्र, मानसशास्त्र, भूगोल- खगोल, भौतिक विज्ञान, भूस्तरविद्या, जीवविद्या आदि सभी के विषय में उमास्वाति ने तत्कालीन जैन मन्तव्य का संग्रह किया है । यही कारण है कि टीकाकारों ने अपनी दार्शनिक विचारधारा को बहाने के लिए इसी ग्रन्थ को चुना है और फलतः यह एक जैन दर्शन का अमूल्य रत्न सिद्ध हुआ है ।
इस प्रकार की ज्ञानविज्ञान की सभी शाखाओं को लेकर तत्त्वार्थ और उसकी टीकाओं में विवेचन होने से किसी एक दार्शनिक मुद्दे पर संक्षेप में चर्चा का होना उसमें अनिवार्य है। अतएव जैनदर्शन के मौलिक सिद्धान्त अनेकान्तवाद और उसीसे सम्बन्ध रखने वाले प्रमाण और नय का स्वतन्त्र विस्तृत विवेचन उसमें सम्भव न होने से जैन आचार्यों ने इन विषयों पर स्वतन्त्र प्रकरण ग्रन्थ भी लिखने शुरू किए |
(२) अनेकान्त स्थापनयुग ।
सिद्धसेन और समन्तभद्र
दार्शनिक क्षेत्र में जब से नागार्जुन पदार्पण किया है तब से सभी भारतीय दर्शनों में नव जागरण हुआ है । सभी दार्शनिकों ने अपने-अपने दर्शन को तर्क के बल सुसंगत करने का प्रयत्न किया है । जो बातें केवल मान्यता की थी उनका भी स्थिरीकरण युक्तियों के बल से होने लगा । पारस्परिक मतभेदों का खंडन-मंडन जब होता है तब सिद्धान्तों और युक्तियों का आदान-प्रदान होना भी स्वाभाविक है । फल यही हुआ कि दार्शनिक प्रवाह इस संघर्ष में पड़ कर पुष्ट हुआ । प्रारम्भ में तो जैनाचार्यों ने तटस्थ रूप से इस संघर्ष को देखा ही है किन्तु परिस्थति ने जब उन्हें बाधित किया, जब अपने अस्तित्व का ही खतरा उपस्थित हुआ, तब समय की पुकार ने ही सिद्धसेन और समन्तभद्र जैसे प्रमुख तार्किकों को उपस्थित किया । इनका समय करीब पाँचवीं - छठी शताब्दी का है । सिद्धसेन श्वेताम्बर और समन्तभद्र दिगम्बर थे ।
जैन धर्म के अन्तिम प्रवर्तक भगवान् महावीर ने नयों का उपदेश तो दिया ही था । किसी भी तत्त्व का निरूपण करने के लिए किसी एक दृष्टि से नहीं, किन्तु शक्य सभी नय- दृष्टिबिन्दुओं से उसका विचार करना सिखाया था । उन्होंने कई प्रसंगों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव — इन चार दृष्टियों से तत्त्व का विचार समकालीन दार्शनिक मतवादियों के सामने उपस्थित किया था
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org