________________
246
ŚRUTA-SARITA
| इस प्रकार अनेकान्तवाद-स्याद्वाद की नींव उन्होंने डाल ही दी थी । किन्तु जब तक नागार्जुन के द्वारा सभी दार्शनिकों के सामने अपने-अपने सिद्धान्त की सिद्धि तर्क के बल से करने के लिए आवाज नहीं उठी थी, जैन दार्शनिक भी सोये हुए थे । सभी दार्शनिकों ने जब अपने अपने सिद्धान्तों को पुष्ट कर लिया तब जैन दार्शनिक जागे । वस्तुतः यही समय उनके लिए उपयुक्त भी था, क्योंकि सभी दार्शनिक अपने अपने सिद्धान्त की सत्यता और दूसरे के सिद्धान्त की असत्यता स्थापित करने पर तुले हुए होने से किंवा अभिनिवेश के कारण दूसरे के सिद्धान्त की खूबियाँ और अपनी कमजोरियाँ देख नहीं सकते थे । उन सभी की समालोचना करने वाले की अत्यन्त आवश्यकता ऐसे ही समय में हो सकती है । यही कार्य जैन दार्शनिकों ने किया ।
शून्यवादियों ने कहा था कि तत्त्व न सत् है, न असत्, न उभयरूप है, न अनुभयरूप, अर्थात् वस्तु में कोई विशेषण देकर उसका निर्वचन किया नहीं जा सकता । इसके विरुद्ध सांख्यों ने और प्राचीन औपनिषदिक दार्शनिकों ने सब को सत् रूप ही स्थिर किया । नैयायिक-वैशेषिकों ने कुछ को सत् और कुछ को असत् ही सिद्ध किया । विज्ञानवादी बौद्धों ने तत्त्व को विज्ञानात्मक ही कहा और बाह्यार्थ का अपलाप किया । इस के विरुद्ध नैयायिक-वैशेषिकों ने
और मीमांसकों ने विज्ञानव्यतिरिक्त बाह्यार्थ को भी सिद्ध किया । बौद्धों ने सभी तत्त्वों को क्षणिक ही सिद्ध किया तब मीमांसकों ने शब्द और ऐसे ही दूसरे अनेक पदार्थों को अक्षणिक सिद्ध किया । नैयायिकों ने शब्दादि जैसे किन्हीं को तो क्षणिक और आकाश-आत्मादि जैसे किन्हीं को अक्षणिक सिद्ध किया । बौद्धों ने और मीमांसकों ने ईश्वरकर्तृत्व का निषेध किया और नैयायिकों ने ईश्वरकर्तृत्व सिद्ध किया । मीमांसकभिन्न सभी ने वेद के अपौरुषेयत्व का विरोध किया, तब मीमांसक ने उसी का समर्थन किया । इस प्रकार इस संघर्ष के परिणामस्वरूप नाना प्रकार के वादविवाद दार्शनिक क्षेत्र में उपस्थित थे । इन सभी वादों को जैन-दार्शनिकों ने तटस्थ होकर देखा और फिर अपनी समालोचना शुरू की । उनके पास भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट नयवाद और द्रव्यादि चार दृष्टियाँ थीं ही । उनके प्रकाश में जब उन्होंने ये वाद देखे तब उन्होंने अपने अनेकान्तवाद-स्याद्वाद की स्थापना का अच्छा मौका देखा ।
सिद्धसेन ने सन्मतितर्क में नयवाद का विवचन किया है, क्योंकि अनेकान्तवाद का मूलाधार नयवाद ही है। उनका कहना है कि सभी नयों का समावेश-दो मूलनयों में-द्रव्यार्थिक
और पर्यार्थिक में हो जाता है । दृष्टि यदि द्रव्य, अभेद, सामान्य, एकत्व की ओर होती है तो सर्वत्र अभेद दिखाई देता हैं और यदि पर्याय, भेद, विशेष, अनेकत्वगामी होती है तो सर्वत्र भेद ही भेद नजर आता है । तत्त्वदर्शन किसी भी प्रकार का क्यों न हो वह आखिर में जाकर इन दो दृष्टियों में से किसी एक में ही सम्मिलित हो जायगा । या तो वह द्रव्यार्थिक दृष्टि से होगा, या पर्यायार्थिक दृष्टि से । अनेकान्तवाद इन दोनों दृष्टियों के समन्वय में है न कि विरोध में । सिद्धसेन का कहना है कि दार्शनिकों में परस्पर विरोध इसलिए है कि या तो वे द्रव्यार्थिक दृष्टि को ही सच मान कर चलते हैं या पर्यायार्थिक दृष्टि को ही । किन्तु यदि वे अपनी दृष्टि का राग छोड़ कर दूसरे की दृष्टि का विरोध न करके उस और उपेक्षाभाव धारण करें तब अपनी दृष्टि में स्थिर रह कर भी उनका दर्शन सम्यग्-दर्शन है, चाहे वह पूर्ण न भी हो । पूर्ण सम्यग्दर्शन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org