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________________ प्रस्तावना जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन भगवान् महावीर से लेकर अब तक के जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन करना यहाँ इष्ट है । समग्र साहित्य को विकासक्रम की दृष्टि से हम चार युगों में विभक्त कर सकते (१) आगमयुग, (२) अनेकान्त स्थापनयुग, (३) प्रमाणशास्त्रव्यवस्था युग और (४) नवीनन्याय युग । युगों के लक्षण युगों के नाम से ही स्पष्ट हैं । फिर भी काल की दृष्टि से थोड़ा स्पष्टीकरण आवश्यक है । प्रथम युग की मर्यादा भगवान् महावीर के निर्वाण (वि. पूर्व ४७०) से लेकर करीब एक हजार वर्ष की है अर्थात् वि. पाँचवीं शताब्दी तक है । दूसरा पाँचवीं से आठवीं शताब्दी तक, तीसरा आठवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक और चौथा अठारहवीं से आधुनिक समय-पर्यन्त । यहाँ इतना कह देना आवश्यक है कि पूर्व युग की विशेषताएँ उत्तर युगम में कायम रही है और उस युग का जो नया कार्य है उसी को ध्यान में रखकर उत्तर युग का नामकरण हुआ है । पूर्व युग में उत्तर युग का बीज अवश्य है; परन्तु पल्लवन नहीं । पल्लवन की दृष्टि से ही युग का नामकरण हुआ है I ग्रन्थकारों का क्रम प्रायः शताब्दी को ध्यान में रखकर किया गया है । जहाँ तक हो सका है, यह प्रयत्न किया गया है कि उनके पौर्वापर्य मुख्य रूप से ध्यान में रखकर ही उनकी कृतियों का वर्णन किया जाय । दशकों को विचार में रखकर वर्णन संभव नहीं । आगम-युग के साहित्य पर जो टीका-टिप्पणियाँ हुई हैं, उनका वर्णन सुभीते की दृष्टि से उसी युग के वर्ण के साथ कर दिया है, यद्यपि ये टीकाएँ उस युग की नहीं हैं । समग्र साहित्य के अवलोकन से यह पता लगता है कि जैन दार्शनिक साहित्यगंगा इन पचीस शताब्दियों में सतत प्रवाहित रही है । प्रवाह कभी गम्भीर हुआ, कभी विस्तीर्ण, कभी मन्द और कभी तेज, किन्तु रुका कभी नहीं । (१) आगमयुग । भगवान् महावीर ने जो उपदेश दिया, वह आज श्रुतरूप में जैन आगमों में सुरक्षित है । आचार्य भद्रबाहु ने श्रुत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए एक सुन्दर रूपक का उपयोग किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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