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जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा ।
नहीं मिलती । पूर्वाचार्यों की कृतिओं के अनुवाद रूप ही ये कृतियाँ बनी हैं । इनमें न्यायदीपिका उल्लेख योग्य है ।
(४) नव्यन्याय युग :
भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में नव्यन्याय के युग का प्रारंभ गंगेश से होता है । गंगेश का जन्म वि. १२५७ में हुआ । उन्होंने नवीन न्यायशैली का प्रवर्तन किया। तब से सभी दार्शनिकों ने उसके प्रकाश में अपने अपने दर्शन का परिष्कार किया । किन्तु जैन दार्शनिकों में से किसी का, जब तक यशोविजय नहीं हुए, इस ओर ध्यान नहीं गया था, फल यह हुआ कि १३वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी के अंत तक भारतीय दर्शनों की विचारधारा का जो नया विकास हुआ उससे जैन दार्शनिक साहित्य वंचित ही रहा । १८वीं शताब्दी के प्रारंभ में वाचक यशोविजय ने काशी की ओर प्रयाण किया और सर्वशास्त्र वैशारद्य प्राप्त कर उन्होंने जैन दर्शन में भी नवीन न्याय की शैली से कई ग्रंथ लिखे और अनेकान्तवाद के ऊपर दिए गये आक्षेपों का समाधान करने का प्रयत्न किया । उन्होंने अनेकान्तव्यवस्था लिखकर अनेकान्तवाद की पुनः प्रतिष्ठा की । और अष्टसहस्री तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय नामक प्राचीन ग्रन्थों के ऊपर नवीन शैली की टीका लिखकर उन दोनों ग्रन्थों को आधुनिक बनाकर उनका उद्धार किया । जैनतर्कभाषा और ज्ञानबिंदु लिखकर जैन प्रमाणशास्त्र को परिष्कृत किया । उन्होंने नयवाद के विषय में नयप्रदीप, नयरहस्य, नयोपदेश आदि कई ग्रन्थ लिखे हैं ।
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वाचक यशोविजय ने ज्ञानविज्ञान की प्रत्येक शाखा में कुछ न कुछ लिखकर जैन साहित्य भण्डार समृद्ध किया है ।
इस नव्यन्याय युग की सप्तभंगीतरंगिणी भी उल्लेख योग्य है ।
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