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________________ 236 ŚRUTA-SARITĀ करके उन्होंने उसका पृथक् प्रामाण्य स्थापित किया और उसी में उपमान का समावेश कर दिया । परोक्ष के इन पाँच भेदों की व्यवस्था अकलंक की ही सूज्ञ है । और प्रायः सभी जैन दार्शनिकों ने अकलंकोपज्ञ इस व्यवस्था को माना है । प्रमाणव्यवस्था के इस युग में जैनाचार्यों ने पूर्व युग की सम्पत्ति अनेकान्तवाद की रक्षा और विस्तार किया । आचार्य हरिभद्र और अकलंक ने भी इस कार्य को वेग दिया । आचार्य हरिभद्र ने अनेकान्त के ऊपर होने वाले आक्षेपों का उत्तर अनेकान्तजयपताका लिख कर दिया । आचार्य अकलंक ने आप्त मीमांसा के ऊपर अष्ट अष्टशती नामक टीका लिखकर बौद्ध और अन्य दार्शनिकों के आक्षेपों का तर्कसंगत उत्तर दिया और उसके बाद विद्यानन्द ने अष्टसहस्री नामक महती टीका लिखकर अनेकान्त को अजेय सिद्ध कर दिया। हरिभद्र ने जैन दर्शन के पक्ष को प्रबल बनाने के लिए और भी कई ग्रंथ लिखे, जिनमें शास्त्रवार्तासमुच्चय मुख्य है । अकलंक ने प्रमाणव्यवस्था के लिए लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, और प्रमाण-संग्रह लिखा और सिद्धिविनिश्चय नामक ग्रन्थ लिखकर उन्होंने जैन दार्शनिक मन्तव्यों को विद्वानों के सामने अकाट्य प्रमाण-पूर्वक सिद्ध किये । आचार्य विद्यानन्द ने अपने समय तक विकसित दार्शनिक वादों को तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में स्थान दिया और उनका समन्वय करके अनेकान्तवाद की चर्चा को पल्लवित किया । तथा प्रमाणशास्त्र सम्बद्ध विषयों की चर्चा भी उसमें की । प्रमाणपरीक्षा नामक अपनी स्वतन्त्र कृति में दार्शनिकों के प्रमाणों की परीक्षा करके अकलंक निर्दिष्ट प्रमाणों का समर्थन किया । उन्होंने आप्त परीक्षा में आप्तों की परीक्षा करके तीर्थंकर को ही आप्त सिद्ध किया और अन्य वृद्धादि को अनाप्त बताया । आचार्य माणिक्यनन्दी ने अकलंक के ग्रन्थों का सार लेकर परीक्षामुख नामक जैन न्याय का सूत्रात्मक ग्रन्थ लिखा । ग्यारहवीं शताब्दी में अभयदेव और प्रभाचन्द्र ये दोनों महान तार्किक टीकाकार हुए । एक ने सिद्धसेन के सन्मति की टीका के बहाने समूचे दार्शनिक वादों का संग्रह किया । और दूसरे ने परीक्षामख की टीका प्रमेयकमलमार्तण्ड और लघीयस्त्रय की टीका न्यायकमदचन्द्र में जैन प्रमाणशास्त्र सम्बद्ध यावत् विषयों की व्यवस्थित चर्चा की । इन्हीं दो महान् टीकाकारों के बाद बारहवीं शताब्दी में वादी देव देवसूरि ने प्रमाण और नय की विस्तृत चर्चा करने वाला स्याद्वादरत्नाकर लिखा । यह ग्रन्थ स्वोपज्ञ प्रमाणनयतत्त्वालोक नामक सूत्रात्मक ग्रन्थ की विस्तृत टीका है । इसमें वादी देव ने प्रभाचन्द्र के ग्रन्थों में जिन अन्य दार्शनिकों के पूर्वपक्षों का संग्रह नहीं हुआ था उनका भी संग्रह करके सभी का निरास करने का प्रयत्न किया है । वादी देव के समकालीन आचार्य हेमचन्द्र ने मध्यम परिमाण प्रमाणमीमांसा लिख कर आदर्श पाठ्य ग्रन्थ की क्षति की पूर्ति की है । इसी प्रकार आगे भी छोटी मोटी दार्शनिक कृतियाँ लिखी गईं किन्तु उनमें कोई नई बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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