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जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा ।
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कि आगे के आचार्यों के लिए सिर्फ उस वाद के ऊपर होने वाले नये नये आक्षेपों का उत्तर देना ही शेष रह गया है । (३) प्रमाणव्यवस्था युग :
___ बौद्ध प्रमाणशास्त्र के पिता दिग्नाग का जिक्र आ चुका है। उन्होंने तत्कालीन न्याय, सांख्य और मीमांसा दर्शन के प्रमाण लक्षणों और भेद-प्रभेदों का खण्डन करके तथा वसुबन्धु की प्रमाण विषयक विचारणा का संशोधन करके स्वतन्त्र बौद्ध प्रमाण-शास्त्र की व्यवस्था की । प्रमाण के भेद, प्रत्येक के लक्षण प्रमेय और फल इत्यादि सभी प्रमाण सम्बद्ध बातों का विचार करके बौद्ध दृष्टि से स्पष्टता की ओर अन्य दार्शनिकों के तत्तत् मतों का निरास किया । परिणाम यह हुआ कि दिग्नाग के विरोध में नैयायिक उद्द्योतकर, मीमांसक कुमारिल आदि विद्वानों ने अपनी कलम चलाई और उस नये प्रकाश में अपना दर्शन परिष्कृत किया । इन सभी को तत्कालीन दार्शनिक क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ वादी धर्मकीर्ति ने उत्तर देकर परास्त किया । धर्मकीर्ति के बाद ग्रथित ऐसा कोई भी दार्शनिक ग्रन्थ नहीं जिसमें धर्मकीर्ति का जिक्र न हो । प्रायः सभी पश्चाद्भावी दार्शनिकों ने उनके स्वमत विरोधी तर्कों का उत्तर देने का प्रयत्न किया है और स्वानुकूल तर्कों को अपना लिया है।
तदन्तर धर्मकीर्ति की शिष्य परंपरा ने धर्मकीर्ति के पक्ष का समर्थन किया और अन्य दार्शनिकों ने उनके पक्ष का खण्डन किया । यह वाद-प्रतिवाद जब तक बौद्ध दार्शनिक भारत छोड़कर बाहर चले न गये बराबर होता रहा ।
इस सुदीर्घकालीन संघर्ष में जैनों ने भी हिस्सा लिया है और अपना प्रमाणशास्त्र व्यवस्थित किया है ।
न्यायावतार नामक एक छोटी सी उपलब्ध कृति सिद्धसेन ने बनाई थी यह परम्परा है। तथा पात्रस्वामी ने दिग्नाग के हेतुलक्षण के खण्डन में त्रिलक्षणकदर्थन नामक ग्रन्थ बनाया था ।
और भी छोटे मोटे ग्रन्थ बने होंगे किन्तु वे सब कालकवलित हो गये हैं । जैन दृष्टि से प्रमाणशास्त्र की प्रतिष्ठा पूर्व परंपरा के आधार से यदि किसी आचार्य ने की है तो वह अकलंक ही है । अकलंक ने धर्मकीर्ति और उनके शिष्य धर्मोत्तर तथा प्रज्ञाकर का खण्डन करके जैन दृष्टि से प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाण की स्थापना की ।
इन्द्रिय प्रत्यक्ष को व्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञान को परमार्थिक प्रत्यक्ष कहा । यह बात उन्होंने नई नहीं की किन्तु जैन परम्परा के आधार से ही कही है । उन्होंने इन प्रत्यक्षों का तर्कदृष्टि से समर्थन किया तथा प्रत्येक के लक्षण, विषय और फल का स्पष्टीकरण किया । परोक्ष के भेद रूप से उन्होंने स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क अनुमान और आगम को बताया । और प्रत्येक का प्रामाण्य समर्थित किया । स्मृति का प्रामाण्य किसी दार्शनिक ने माना नहीं था । अतएव सब दार्शनिकों की दलीलों का उत्तर देकर उसका प्रामाण्य अकलंक ने उपस्थित किया । प्रत्यभिज्ञान को अन्य दार्शनिक प्रत्यक्ष रूप मानते थे, या पृथक् स्वतंत्र ज्ञान ही न मानते थे तथा बौद्ध तो उसके प्रामाण्य को भी मानता न था-इन सभी का निराकरण
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