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प्राचीन जैन साहित्य के प्रारंभिक निष्ठासूत्र
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जैसा चाहिए वैसा स्पष्टीकरण और विवरण उस साहित्य को अन्तर्गत दिखाई नहीं देता । इसीलिए परिग्रह के पाप या हिंसा के पाप के विषय में उपनिषद् हमारे मार्गदर्शक नहीं बन सकते । जहाँ सभी कुछ आत्म-स्वरूप हो वहाँ कौन किसे मारे और कौन क्या ले या छोड़े?-ऐसी विचारणा के लिए बहुत अवकाश नहीं रहता । इसी कारण से सदाचार के जो स्तर जैन साहित्य में स्थापित किए गये वे वैदिक साहित्य जो कि उपनिषदों तक विकसित हुआ था उसमें उन स्तरों की कोई विशेष चर्चा नहीं दिखाई देती । जब कि जैन साहित्य में तो उन स्तरों की ही मुख्य चर्चा उसके प्रारम्भिक साहित्य में दिखाई पड़ती है और जो स्तर उसमें स्थापित हए उसी की पष्टि हेत समग्र जैन धार्मिक साहित्य प्रयत्नशील रहा है और उसकी अमिट छाया उपनिषद् के बाद के वैदिक वाङ्मय में भी दिखाई पड़ती है।
___ कर्मविचारणा में जैन साहित्य की प्रमुख विशेषता यह है कि कर्म करने वाले को उसका फल कर्म खुद ही देता है, वैदिक मतानुसार यज्ञकर्म में उसके फल के लिए देव पर आधार रखना पड़ता था और उसके बाद तो देवता को मन्त्रमय स्वीकार कर लिया गया और परिणाम यह हुआ कि कर्म का फल वास्तविक देवता के अधीन न रहते हुए मन्त्र के अधीन बन गया । इस तरह मन्त्र के ज्ञाता का महत्त्व बढ़ गया और वे ही सर्वशक्तिसम्पन्न बन कर उभर आए । इस परिस्थिति का सामना जैन साहित्य में दो तरह से हुआ-एक तो यह कि उन मन्त्रों की शक्ति का निराकरण, संस्कृत भाषा का ही निराकरण करके करने में आया और दूसरा यह कि मन्त्र में ऐसी किसी शक्ति को ही अस्वीकार कर दिया गया और उसके स्थान पर कर्म में ही फलदायिनीशक्ति को स्वीकार किया गया । इस प्रकार कर्म करने वाले का ही कर्म के फल के विषय में महत्त्व स्थापित हुआ । अर्थात् जो जैसा करता है वैसा ही फल वह प्राप्त करता है । यह बात सिद्धांतरूप में सामने आई ।
इस प्रकार कर्म का फल देने की शक्ति देवता या ईश्वर के मन्त्र में नहीं परन्तु उस कर्म में ही निहित है, जिसको लेकर फल है—यह सिद्धांत स्थिर हुआ । परिणामस्वरूप मनुष्य ही शक्तिसम्पन्न बना । मनुष्य ही नहीं, बल्कि संसार के समस्त जीव अपने कर्म के लिए स्वतन्त्र हुए । इस प्रकार जीव को उसके स्वातन्त्र्य की पहचान करने का सर्व प्रथम प्रयास जैन साहित्य में ही दिखाई पडता है ।
इस सिद्धान्त द्वारा यह भी फलित हुआ कि ये जीव उनके अपने कर्म के कारण ही संसार में भ्रमण करते हैं और दुःखी होते हैं । उसके लिए अन्य कोई व्यक्ति कारण नहीं और अगर ऐसा है तो अपने शाश्वत सुख के लिए उसे खुद ही प्रयत्न करना होगा । उसे कोई दूसरा सुख नहीं दे सकता । वह तो उसे अपने आंतरस्वरूप से ही प्राप्त करना होगा और उसका उपाय है—कर्मविहीन बनना ।
जैनों की प्राचीनतम पुस्तक 'आचारांग' है और उसमें कर्मविहीन कैसे बना जा सकता है जिससे संसार का परिभ्रमण टल जाए और परमसुख निर्वाण अवस्था प्राप्त हो, यह बात समझाई गई है । वैदिकों के कर्मकांडी यज्ञमार्ग और उपनिषदों के ज्ञानमार्ग से यह मार्ग–अर्थात्
कर्मविहीन होने का यह मार्ग-सर्वथा निराला है—सामायिक अथवा समभाव का सिद्धांत Jain Education International For Private & Personal Use Only
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