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ŚRUTA-SARITA
है यह निर्विवाद है । अतः वैदिक साहित्य के प्रभाव से सर्वथा मुक्त ऐसा जैन साहित्य शक्य ही नहीं । परन्तु वैदिक धर्म की निष्ठा है, जो सिद्धांत है उनसे जैन साहित्य कहाँ अलग पड़ता है, इसी का विचार करना अभीष्ट है । प्रारम्भ में ऐसा हुआ है कि वैदिक विचारों को ही कुछ बातों में अपना लिया गया परन्तु कालक्रम से उनमें परिवर्तन आया । उदाहरण के तौर पर, आचारांग में आत्मा के पारमार्थिक स्वरूप के निरूपण में मात्र वैदिक विचार ही नहीं, उसकी परिभाषा को भी अपना लिया गया, परन्तु जब यह मालूम हुआ कि जैन सम्मत स्वतन्त्र विचार के साथ वैद सम्मत आत्म-स्वरूप का समग्र भाव से कोई मेल नहीं है तब कालक्रम से उसमें परिवर्तन किया गया ।
आचारांग में एक तरफ यह कहा गया कि आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है । इस मौलिक विचार के साथ आत्मा की वैदिक सम्मत व्यापकता का मेल संभवित ही नहीं । एतदर्थ आत्मा को देह परिणाम रूप मानकर उसकी वेद सम्मत व्यापकता का निषेध किया गया । इसके परिमाण स्वरूप आचारांग में जो यह कहा गया था कि आत्मा न तो दीर्घ है न ही लघु उसके बदले वह लघु-दीर्घ के रूप से स्वीकार हुआ और यह बात संसारी आत्मा तक ही मर्यादित न रह कर सिद्ध आत्मा में भी स्वीकार करनी पड़ी ।।
वैदिक विचार में उपनिषद् तक समग्र विश्व का मूल कोई एक तत्त्व है, ऐसी विचार धारा की पुष्टि दी गई है । अर्थात् एक मात्र ब्रह्म या आत्मा ही विश्व प्रपंच के मूल में है ऐसी विचारणा वैदिकों में दृढ़ होती गई और उपनिषदों में उस विचार को अन्तिम रूप दे दिया गया । परन्तु जैन आगमों में चित्त और अचित्त, अथवा चित्तमंत या अचित्तमंत, अथवा जीव और अजीव इन दो तत्त्वों को ही स्वीकृति मिली है ।
विश्व की उत्पत्ति की विचारणा वैदिक साहित्य में हुई थी और ईश्वर जैसे अलौकिक तत्त्व की प्रतिष्ठा भी वैदिकों ने की थी । इसके स्थान पर यह विश्व अनादि काल से विद्यमान है और अनागत में विद्यमान रहेगा इतना ही नहीं बल्कि ऐसी स्थिति में अधिनायक ईश्वर जैसे तत्त्व का भी अस्वीकार करना यह जैन तत्त्वज्ञान की विशेषता है, जो जैन साहित्य में प्रचुर मात्रा में प्रगट होती रही है ।
कर्म की प्रतिष्ठा यज्ञ कर्म के रूप में मुख्यतया वैदिकों में थी । सारांश यह कि यज्ञकर्म को वैदिकों ने स्वीकार किया था । परन्तु समग्र प्रकार के कर्म और उसके फल की चर्चा अत्यन्त गौण थी । इसीलिए कर्म सिद्धांत की चर्चा उपनिषद् तक तो गुह्य विद्या थी, जिसकी चर्चा सबके सामने नहीं परन्तु एकांत में करनी पड़ती थी । उपनिषदों में यज्ञ कर्म की प्रतिष्ठा कम करके उसके स्थान पर ज्ञानमार्ग की प्रतिष्ठा करने का प्रयत्न किया गया । परन्तु कर्म के नाम से यज्ञकर्म की प्रतिष्ठा का निराकरण जैन साहित्य में स्पष्ट है । इतना ही नहीं बल्कि कर्म-विचारणा प्रमुख रूप से जैन साहित्य में दिखाई पड़ती है । इसमें प्रथम तो यह कि आत्मा की विशुद्धि के लिए या आत्मसाक्षात्कार के लिए मात्र ज्ञान का ही महत्त्व नहीं परन्तु ज्ञान और क्रिया दोनों का एक समान महत्त्व है ऐसी स्पष्टता की गई । यहाँ क्रिया का अर्थ सत्कर्म अथवा सदाचरण से
है । उपनिषदों ने ज्ञानमार्ग की प्रतिष्ठा करने का प्रयत्न किया है, परन्तु सदाचार या सदाचरण का Jain Education International For Private & Personal Use Only
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