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प्राचीन जैन साहित्य के प्रारंभिक निष्ठासूत्र
प्रश्न यह है कि हम जैन साहित्य को अन्य साहित्य से अलग क्यों करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि भारतीय साहित्य में वेद से लेकर अब तक जो साहित्य प्रकाश में आया है उसमें हम जिसे जैन साहित्य के नाम से पहचानते हैं वह अन्य वैदिक साहित्य से सर्वथा अलग है । इसका मुख्य कारण यह है कि जहाँ अन्य साहित्य-विशेष रूप से धार्मिक साहित्य-वेदमूलक है अर्थात् वेद को ही प्रमाण मानकर जिसकी रचना हुई है, वहीं जिसे हम जैन साहित्य कहते हैं उसका प्रारम्भ ही वेद के प्रामाण्य के विरोध हेतु हुआ है ।
यह विरोध प्रारम्भ में दो तरह से प्रकट होता है : एक तो भाषा को लेकर और दूसरा प्रतिपाद्य वस्तु को लेकर ।
वैदिक साहित्य की भाषा जो शिष्ट-मान्य संस्कृत थी उसके बदले जैन साहित्य का प्रारम्भ प्राकृत, अर्थात् लोक भाषा से हुआ । वेदों और उसकी भाषा ने 'मन्त्र' का पद प्राप्त किया था । अतएव उसके उच्चारण आदि में कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए और उसके विधिपूर्वक उच्चारण मात्र से कार्य-सिद्धि की धारणा वैदिकों में दृढ़रूप से प्रस्थापित हो चुकी थी। इसके विरोध में जैन साहित्य ने प्राकृत को अपनी भाषा के रूप में स्वीकार किया और तीर्थंकर लोकभाषा अर्धमागधी में उपदेश देते हैं ऐसी मान्यता स्थिर हुई । फलस्वरूप प्रारम्भिक जैन साहित्य की रचना प्राकृत में ही हुई है वह भी यहाँ तक कि ईसा की चौथी सदी तक तो हमें यह स्पष्ट दिखाई देता है ।
परन्तु जब गुप्त काल में संस्कृत भाषा और वैदिक धर्म के पुनरुत्थान का प्रारम्भ होने लगा तब जैनों ने भी प्राकृत के उपरांत संस्कृत भाषा को भी अपनाया । वह भी यहाँ तक कि मल जैन आगमों की टीकायें-गद्य या पद्य में प्राकत में लिखी जाती थी उसके बदले
की सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ से संस्कृत में लिखी जाने लगी और फिर कभी भी प्राकृत में लिखी ही नहीं गई और एक बार जब परम्परा में संस्कृत भाषा का प्रवेश हुआ फिर तो (फलस्वरूप) साहित्य के सभी प्रकारों में प्राकृत के बदले मुख्य रूप से संस्कृत को अपना लिया गया । यह तो हुई भाषा की बात ! अब हम प्रतिपाद्य वस्तु के बारे में विचार करें । वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् काल के बाद का ही जैन साहित्य हमें उपलब्ध For Private & Personal Use Only
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