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________________ ( ५५ ) स्वीकार करते हैं । वेदान्त और जैन दर्शन द्वितीय पक्ष को अन्तिम साध्य मानते हैं । उनका विश्वास है कि शाश्वत सुख को प्राप्त करना ही साधक का अन्तिम ध्येय है और यह साध्य मोक्ष है । P योग में विषय का वर्गीकरण उसके अन्तिम साध्य के अनुरूप ही है । उसमें अनेक सिद्धान्तों का वर्णन है, परन्तु संक्षेप में वह चार विभागों में विभक्त किया जा सकता है- १. हेय, २. हेय हेतु, ३. हान और ४. हानोपाय । दुःख हेय है, अविद्या हेय का कारण है, दुःख का आत्यन्तिक नाश हान है और विवेकख्याति हानोपाय है । सांख्य सूत्र में भी यही वर्गीकरण मिलता है । तथागत बुद्ध ने इसी चतु ह को 'आर्य सत्य' का नाम दिया है । और योग शास्त्र में वर्णित अष्टांग योग की तरह चतुर्थ आर्य सत्य के साधन रूप से 'आर्य अष्टांग मार्ग' का उपदेश दिया है । २ इसके अतिरिक्त योग शास्त्र में वर्णित चतुर्व्यूह का दूसरी प्रकार से भी वर्गीकरण किया है- १. हाता, २. ईश्वर, २. जगत्, और ४. संसार एवं मुक्ति का स्वरूप तथा उसके कारण । १. हाता दुःख से सर्वथा निवृत्त होने वाले द्रष्टा- - आत्मा या चेतन को 'हाता' कहते हैं । योग-शास्त्र में सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक, बौद्ध, जैन एवं पूर्णप्रज्ञ ( मध्व ), - दर्शन की तरह अनेक आत्माएँ-चेतन स्वीकार की हैं । परन्तु, आत्मा के स्वरूप की मान्यता में भेद है । योग शास्त्र आत्मा को न तो जैन दर्शन की तरह देह प्रमाण मानता है और न मध्व सम्प्रदाय की तरह अणु प्रमाण मानता है । वह सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक एवं शांकर वेदान्ती की तरह आत्मा को सर्वव्यापक मानता है । इसी तरह वह चेतन को जैन दर्शन की तरह परिणामि नित्य तथा बौद्ध दर्शन की तरह एकान्त क्षणिक न मानकर सांख्य एवं अन्य वैदिक दर्शनों की तरह कूटस्थ नित्य मानता है । २. ईश्वर योग-शास्त्र सांख्य दर्शन की तरह ईश्वर के अस्तित्व से इनकार नहीं करता । वह ईश्वर को मानता है और उसे जगत् का कर्त्ता भी मानता है । ३. जगत् योग- शास्त्र जगत् के स्वरूप को सांख्य दर्शन की तरह प्रकृति का परिणाम और अनादि-अनन्त प्रवाह रूप मानता है । वह जैन, वैशेषिक एवं नैयायिक दर्शन की तरह उसे परमाणु का परिणाम नहीं मानता, व शंकराचार्य की तरह ब्रह्म का विवर्त - परिणाम मानता है, और न बौद्ध दर्शन की तरह शून्य या विज्ञानात्मक स्वीकार करता है । १ योग सूत्र २ बुद्धलीलासार संग्रह, पृष्ठ १५०. ३ सांख्य-सूत्र, १, ६२ । Jain Education International - महर्षि पतञ्जलि, २, १६, १७, २४; २६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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