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________________ निरोध के विशेषण के रूप में आस्रव का उल्लेख किया गया है और दूसरे में चित्त-वृत्ति का। जैनागम में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को आस्रव कहा है। इसमें भी मिथ्यात्व, कषाय एवं योग को प्रमुख माना है। अविरति और प्रमाद-कषाय के ही विस्तार मात्र हैं । यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि जैनागम में उल्लिखित आस्रव में जो 'योग' शब्द आता है, वह योग-परम्परा-सम्मत चित्तवृत्ति के स्थान में है । जैनागम में मन, वचन और कायिक प्रवृत्ति को योग कहा है । इसमें मानसिक प्रवृत्ति तीनों का केन्द्र है । क्योंकि कर्म का बन्ध वचन और काया की प्रवृत्ति से नहीं, बल्कि परिणामों से होता है। इस तरह योग-सूत्र में जिसे चित्तवृत्ति कहा है, जैन परम्परा में उसे आस्रव रूप योग कहा है। जैन परम्परा में योग-आस्रव दो प्रकार का माना है---१. सकषाय योग-आस्रव, और २. अकषाय योग-आस्रव । योग-सूत्र में चित्त-वृत्ति के भी क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो भेद किये हैं । जैनागम में कषाय के चार भेद किये हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ और योग-सूत्र में क्लिष्ट चित्त-वृत्ति को भी चार प्रकार का माना है---अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश । जैन परम्परा सर्वप्रथम सकषाय योग के निरोध को और उसके पश्चात् अकषाय योग के निरोध को स्वीकार करती है । यही बात योगसूत्र में क्लिष्ट और अक्लिष्ट चित्त-वृत्ति के विषय में कही गई है। महर्षि पतंजलि भी पहले क्लिष्ट चित्त-वृत्ति का निरोध करके फिर क्रमशः अक्लिष्ट चित्त-वृत्ति के निरोध की बात कहते हैं । इस तरह जब हम जैन परम्परा और योगसूत्र में उल्लिखित योग के अर्थ पर विचार करते हैं, तो दोनों में भिन्नता नहीं, एकरूपता परिलक्षित होती है। अतः समग्र भारतीय चिन्तन की दृष्टि से योग का यह अर्थ समझना चाहिए-समस्त आत्मशक्तियों का पूर्ण विकास कराने वाली क्रिया, सब आत्म-गुणों को अनावृत्त करने वाली आत्माभिमुखी साधना । एक पाश्चात्य विचारक ने भी शिक्षा की यही व्याख्या की है। योग को जन्मभूमि ... योग एक आध्यात्मिक साधना है। आत्म-विकास की एक प्रक्रिया है । और साधना का द्वार सबके लिए खुला है । दुनियाँ का प्रत्येक प्राणी अपना आत्म-विकास १ पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा--मिच्छत्तं, अविरई, पमायो, कसाया, जोगा। -समवायांग, समवाय ५। २ परिणामे बन्धः । 3 Education is the harmonious development of all our faculties. -Lord Avebrine. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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