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________________ ( ४० ) का दुःख नहीं देख सकते थे । उनके अन्तर्मत में दया एवं करुणा का सागर ठाटें मारा करता था । स्वर्गवास के एक वर्ष पहले की बात है - आप एक दिन शौच के लिए बाहर पधारे और वहाँ चारे की कमी के कारण दुर्बल एवं भूखी गायों को देखकर आपका हृदय से उठा और आँखों से अजस्र अश्रुधारा वह निकली । वे पर - वेदना को सहने में बहुत कमजोर थे । गायों की दयनीय स्थिति देखकर उन्होंने उस दिन से दूध-दही का त्याग कर दिया । आपका जीवन सादा और सरल था । आप हमेशा सादगी से रहना पसन्द करते थे । आप यथासंभव अल्प से अल्प मूल्य के वस्त्र ग्रहण करते थे और वह भी मर्यादा से कम ही रखते थे । सर्दियों के दिनों में आप टाट ओढ़कर रात बिता देते थे। आसन के लिए तो आप टाट का ही उपयोग करते थे । आपकी आवश्यकताएँ भी बहुत सीमित थीं । समाधि-मरण यह मैं ऊपर लिख बुकी हूँ कि वे अधिकतर ध्यान एवं जप- साधना में ही संलग्न रहते थे । रात के समय ३-४ घंटे निद्रा लेते थे, शेष समय ध्यान एवं जप में ही बीतता था और इसी कारण उन्हें अपना भविष्य भी स्पष्ट परिलक्षित होने लगा । आपने अपने महाप्रयाण के ६ महीने पूर्व ही अपने देह त्याग के सम्बन्ध में बता दिया था । जब मेरी ज्येष्ठ गुरु बहिन परम श्रद्धेया महासती श्री झमकूकुँवर जी म० का संथारा चल रहा था तब भी आपने सबके सामने कहा कि मेरा जीवन भी अब चार महीने का शेष रहा है । यह सुनते ही निहालचन्दजी मोदी ने कहा कि - " महाराज आप ऐसा क्यों फरमा रहे हैं? अभी तो श्रद्धेया सतीजी म चलने की तैयारी कर रही हैं । अभी हमें आपके मार्ग-दर्शन की आवश्यकता है ।" आपने अपने भविष्य की बात को दोहराते हुए दृढ़ स्वर में कहा कि - " आप मानें या न मानें, होगा ऐसा ही ।" उसके डेढ़ महीने बाद महासती श्री झमकूकुँवर जी म० का स्वर्गवास हो गया । मेरा अध्ययन चल रहा था और ब्यावर संघ का आग्रह होने से हमने वहीं वर्षावास मान लिया । इससे पूज्य पिता श्री जी के दर्शन एवं सेवा का लाभ मिलता रहा । परन्तु उनका अन्तिम समय भी निकट आ गया । स्वर्गवास के तीन दिन पूर्व भी आपने हमें सजग कर दिया कि अब मैं सिर्फ तीन दिन का ही मेहमान हूँ । परन्तु हमने इस बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया । आप अपने कार्य में सजग थे। अतः आपने अपने जीवन की आलोचना करके शुद्धि की और सबसे क्षमत क्षमापना की । स्वर्गवास के दिन करीब १२ बजे तक अपने भक्तों के घर जाकर उन्हें दर्शन देते रहे । सबसे शुद्ध हृदय से क्षमतक्षमापना करके हमारे स्थानक में भी दर्शन देने पधारे। जब मैंने उनसे कहा कि " आपके घुटनों में दर्द है, फिर आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया ?" तब आपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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