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यह मेरा विशेष सद्भाग्य था, मन्त्रदाता गुरु भी परमपूज्य स्वामीजी श्री हजारीमलजी म. सा० जैसे पावन पुरुष मुझे प्राप्त हुए। मार्गनिर्देशिका के रूप में परम श्रद्धेया गुरुणीजी महासती श्री सरदारकुवरजी म.सा० की सन्निधि मेरे लिए सदैव वरदान रही। इन सब दिव्यात्माओं की प्रेरणा और छत्रच्छाया में अपनी संयमयात्रा पर आगे बढ़ते रहने में मुझे बड़ा ही आनन्द और आत्मतोष अनुभूत होता रहा । मेरे विद्याध्ययन तथा जीवन-विकास में ये सदैव उत्प्रेरक, निर्देशक और सहायक रहे । जैन श्रमण-जीवन के नाते हम लोगों के लिए यह संभव नहीं हो पाता कि दीर्घकाल तक किसी एक ही स्थान में टिककर हम अध्ययन कर सकें क्योंकि वर्षावास के चार महीनों के अतिरिक्त और समय हम कहीं भी बिना किसी विशेष कारण के एक मास से अधिक नहीं ठहर सकते । फिर भी जब जैसा समय मिला, मैं इस ओर प्रयत्नशील रही । आदरणीय विद्वद्वर पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल जैसे विद्वानों का मेरे ज्ञान विकास में बड़ा योगदान रहा । व्याकरण, साहित्य, काव्य, कोष, दर्शन आदि अनेक विषयों में मैंने यथामति, यथाशक्ति अग्रसर होने का प्रयास किया ।
जैसा मैंने पहले संकेत किया है, योग सम्बन्धी, विशेषतः जैनयोग सम्बन्धी ग्रन्थों के पढ़ने में मुझे विशेष आत्मतोष मिलता था । जितना संभव हो सका, उस दिशा में भी मैंने अपना अध्ययन चालू रखा । तभी मेरे मन में आया कि योग केवल साधुसंन्यासियों या गृह-त्यागियों का विषय नहीं है, मानव मात्र से इसका सम्बन्ध है। इसलिए बहुत अच्छा हो कि लोगों में योग सम्वन्धी साहित्य के अध्ययन की प्रवृत्ति पनपे, बढ़े । मेरा आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र की ओर ध्यान गया । मैंने सोचा हिन्दी अनुवाद के साथ यह ग्रन्थ प्रकाश में आये तो जिज्ञासुओं तथा अभ्यासी जनों को बड़ा लाभ हो । मुनि श्री समदर्शीजी एवं पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल के सहयोग से इसका सम्पादन व अनुवाद कार्य सम्पन्न हुआ और सन् १९६३ में इसका प्रकाशन हुआ । पाठकों ने इसका अच्छा आदर किया। फलतः आज यह ग्रन्थ अप्राप्य है।
मन ही मन मैं सोचती रहती हैं, उस दिशा में (योग की ओर) लोग गतिशील हों- अध्ययन, अभ्यास व साधना की दृष्टि से । मैं नागौर में प्रवास कर रही थी, तब जैन विद्या तथा प्राच्य भाषाओं के विद्वान् डॉ० छगनलालजी शास्त्री ने मेरे समक्ष जैन जगत् के योगनिष्ठ महान् विद्वान् तथा साहित्य-स्रष्टा आचार्य हरिभद्र सूरि के योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक तथा योगविंशिका नामक ग्रन्थों पर कार्य करने का प्रस्ताव रखा । मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई। जैसा कि मैंने अपने पिछले तोन-चार वर्ष के परिचय में अनुभव किया, डॉ० शास्त्रीजी एक ऐसे सर्जनशील, विनयशील एवं चरित्रनिष्ठ मनीषी हैं, जिनके प्रगाढ़ पाण्डित्य और संस्कारवती प्रतिभा का उपयोग लिया जाए तो विद्या के क्षेत्र में बहुत बड़े कार्य हो सकते हैं । मुझे और अधिक प्रसन्नता इस बात की हुई कि डॉ. शास्त्रीजी जैसे विद्वान् स्वतः प्रेरित होकर इस पुण्य कार्य में जुट रहे हैं । यह बहुत बड़ा शुभ चिन्ह है । मैंने
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