SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2वता ज्ञान और कर्म का घनिष्ठ सम्बन्ध है । कर्म सत्प्रयुक्त, सन्नियोजित तथा सार्थक हो, इसके लिए यह आवश्यक है कि कर्म-प्रवृत्त पुरुष को यथार्थ ज्ञान हो । वह ज्ञान सत्यपरक हो । सन्निष्ठा तथा सद्ज्ञान से परिचालित, परिपोषित कर्म जीवन में अत्यन्त उपादेय होता है। निष्ठारहित और ज्ञानशून्य कर्म उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है । अतएव 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः', 'माणं पयासयरं' जैसे प्रेरक सूत्र-वाक्य अस्तित्व में आये । व्यक्ति ज्ञान की सूक्ष्मता और गहराई में ज्यों ज्यों प्रविष्ट होता जाता है, उसकी उसमें तन्मयता बढ़ती जाती है, तद्व्यतिरिक्त जागतिक पदार्थ विस्मृत होते जाते हैं । ज्ञान तब योग बन जाता है । उसमें से एक नूतन क्रान्ति का जन्म होता है । वह क्रान्ति है अपनी विराट्ता को जानने तथा अधिगत करने का सत् पराक्रम । उस विराट्ता को स्वायत्त कर लेने का अर्थ है आत्मभाव का परात्मभाव में रूपान्तरण । ज्ञान एक महासागर की तरह असीम एवं अगाध है। जन्म-जन्मान्तर पयन्त सतत प्रयत्नशील रहने पर भी मानव केवल उसके कुछ कण ही बटोर सकता है । पर थोड़े ही सही, ये ज्ञान कण निश्चित रूप में बहुत बड़ी निधि बन जाते हैं। . बचपन से ही मेरी ज्ञान में सहजरुचि रही है और जितना जो संभव हो सका, इस दिशा में मेरा विनम्र प्रयास रहा । अपने इस अध्ययन क्रम में मेरा योगसाहित्य-सम्बन्धी ग्रन्थ पढ़ने में विशेष झुकाव रहा । मैंने अपनी संयम-यात्रा में इसी लक्ष्य से चरणन्यास किया था-जब जीवन का एक पक्ष विधि ने मुझ से छुड़ा लिया है और तत्त्वतः जो छोड़ने ही योग्य है, मुझे दूसरे पक्ष को सही माने में सजाना-सँवारना है । मेरे श्रद्धेय पिताश्री एक पुण्यचेता सात्त्विक पुरुष थे । लोक में रहते हुए भी वे वस्तुतः उसमें निमग्न नहीं थे, एक प्रकार से अलिप्त भी। उनकी स्नेह भरी गोद में मैं पली, क्योंकि मेरी वात्सल्यमयी माँ को भाग्य ने मुझ से जन्म लेने के कुछ ही दिन बाद छीन लिया था। पिताजी से मुझे जहाँ दैहिक पुष्टि मिली, उनके व्यक्तित्व की पावनता ने सहजरूप में मुझे वे आध्यात्मिक संस्कार दिये, जिनकी अभिव्यक्ति मैंने श्रमण जीवन में उपलब्ध की। पिताजी सचमुच एक योगी थे और कतिपय दृष्टियों से पहुँचे हुए भी । मेरे साथ वे भी श्रमण-जीवन में प्रवजित हो गये और अपनी आध्यात्मिक यात्रा में बड़ी वीरता से आगे बढ़ते गये। मैं इसे अपना विशेष सौभाग्य ही कहूँगी, गृही जीवन में उनकी छत्रच्छाया मुझ पर रही ही, श्रमण जीवन में भी समय-समय पर उनका प्रेरक सान्निध्य मुझे प्राप्त होता ही रहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy