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२५८ | योग- शतक
योगसूत्र में उल्लेख है कि अस्तेय यम के सध जाने पर सब दिशाओं में स्थित, पृथ्वी में कहीं भी गुप्त स्थानों में गड़े हुए रत्न योगी के समक्ष प्रकट हो जाते हैं ।" वे योगी को प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं । प्रस्तुत गाथा में रत्न लब्धि का जो उल्लेख है, वह इस कोटि में संभावित है ।
योगसूत्र में धारणा, ध्यान तथा समाधि - इन तीनों का किसी एक ध्येय में एकत्र होना संयम कहा गया है ।" संयम द्वारा योगी विकास की अनेक कोटियाँ प्राप्त करता है । पतञ्जलि ने बताया है कि स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय तथा अर्थवत्त्व - भूतों की इन पाँच अवस्थाओं में संयम द्वारा योगी भूतजय प्राप्त करता है - भूतों पर उसका अधिकार हो जाता है । भूतजयसे उसके अणिमा - अणुसदृश सूक्ष्म रूप धारण कर लेना, लघिमा - शरीर को अत्यन्त हलका बना लेना, महिमा - शरीर को बहुत बड़ा कर लेना, गरिमा - शरीर को बहुत भारी बना लेना, प्राप्ति - चाहे गये जिस किसी भौतिक पदार्थ का संकल्प मात्र से प्राप्त हो जाना, प्राकाम्य – भौतिक पदार्थ सम्बन्धी कामना का निर्बाध, अनायास पूरा हो जाना, वशित्व - पाँच भूतों तथा तन्निष्पन्न पदार्थों का वंशगत हो जाना, ईशित्व-भूतों तथा भौतिक पदार्थों को नाना रूपों में परिणत करने की, उन पर शासन करने की क्षमता प्राप्त कर लेना – ये आठों सिद्धियाँ सध जाती हैं । प्रस्तुत गाथा में अणिमा शब्द इसी आशय से प्रयुक्त है ।
जैन परम्परा में भी संयम के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली अनेक लब्धियों का वर्णन आया है । वहाँ आमोसहि, विप्पोसहि, खेलो सहि, जलमोसहि आदि की चर्चा है । 'आमोसहि' का अभिप्राय यह है— जिस
१. अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।
- योगसूत्र २.३७
२. त्रयमेकत्र संयमः ।
- पातञ्जल योगसूत्र ३.४ ३. स्थूलस्वरूप सूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमाद् भूतजयः ।
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- पातञ्जल योगसूत्र ३.४४
४. ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः काय सम्मत्तद्धर्मानभिघातश्च ।
- पातञ्जल योगसूत्र ३.४५
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