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________________ -२५२ | योग- शतक चिन्तन-मनन योग्य विषय में तन्मयता तथा उपयोग द्वारा तत्त्व - भासित होता है - वस्तु का यथार्थ स्वरूप प्रकाश में आता है । सत्य का उद्भास - भान या प्रतीति ही इष्ट-सिद्धि का मुख्य अंग है । [ ६६ ] एवं खु तत्तनाणं असप्पवित्ति-विणिवित्ति-संजणगं । थिरचित्तगारि लोगदुगसाहगं बिति समयन्नू 11 शास्त्रज्ञ बतलाते हैं-तत्त्व ज्ञान से असत् प्रवृत्ति का निवारण होता है, चित्त में स्थिरता आती है, ऐहिक तथा पारलौकिक दोनों प्रकार के हित सधते हैं । [ ६७ ] थोरागम्मि तत्तं तासि चितेज्ज सम्मबुद्धीए कलमलगमंससोणियपुरीसकंकालपायं ति यदि नारी के प्रति राग हो तो रागासक्त पुरुष सम्यक् बुद्धिपूर्वक यों चिन्तन करे - अत्यन्त सुन्दर दीखने वाली नारी की देह उदरमल, मांस, रुधिर, विष्ठा, अस्थि - कंकाल मात्र ही तो है । इसमें कैसा राग ! कैसी आसक्ति ! [ ६८ ] रोगजरापरिणामं नरगाइवियागसंगयं अहवा चलरागपरिणयं जीयनासणविवागदोस ति ॥ एक समय आता है, वही 'सुन्दर देह रोग तथा वृद्धावस्था से ग्रस्त हो जाती है, नरक गति आदि कठोर फलप्रद होती है। कितना आश्चर्य है, ऐसी देह के प्रति चंचलतापूर्ण राग उत्पन्न होता है, जो जीवन को नष्ट कर देने वाला है, तथा जिसका परिणाम दोषपूर्ण है । [ ६६ ] अत्थे रागम्मि उ अज्जणाइदुक्खसयसंकुलं तत्तं गमणपरिणामजत्तं कुगइविवागं च चितेज्जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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