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________________ · दोष - चिन्तन | २५१ पद्मासन आदि में संस्थित होकर शरीर पर होते डांस, मच्छर आदि के उपद्रव को न गिनता हुआ साधक गुरु तथा देव की साक्षी से चिन्तन करे । [ ६२ ] गुरुदेवयाहि जायइ अणुग्गहो अहिगयस्स तो सिद्धी । एसो य तन्निमित्तो तहाऽऽयभावाओ विन्नेओ ॥ गुरु तथा देव के अनुग्रह से प्रारम्भ किये हुए कार्य में सफलता प्राप्त होती है । यह अनुग्रह उनके प्रति उत्तम आत्म-परिणाम रखने से प्राप्त होता है । [ ६३ ] जह चेव मंतरयणाइएहि विहिसेवगस्स भव्वस्स । उवगाराभावम्मि वि तेसि होइ ति तह एसो ॥ मन्त्र, रत्न आदि स्वयं अपना उपकार नहीं करते हुए, जो यथाविधि उनका सेवन - प्रयोग करता है, उनका हित साधते हैं । यही स्थिति गुरु तथ देव के साथ है । उनमें हितसाधकता की असाधारण क्षमता है पर उसका उपयोग दूसरों का उपकार करने में होता है । [ ६४ ] ठाणा कार्यनिरोहो तक्कारीसु बहुमाणभावो य । दंसा य अगणणम्मि वि वोरियजोगो य इटुकलो ॥ आसन साधने से देह का निरोध होता है । देह का निरोध करने वाले इन्द्रियजयी साधकों के प्रति लोगों में अत्यधिक आदरभाव उत्पन्न होता है । वे जीव-जन्तुओं द्वारा लगाये गये डंक आदि की परवाह नहीं करते । इससे उनमें इच्छित फलप्रद वीर्य योग - यौगिक पराक्रम का उदय होता है ।" [ ६५ ] तग्गयचिरास्स तहोवओगओ तराभासणं होइ एयं एत्थ पहाणं अंगं खलु इgसिद्धीए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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