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________________ २४८ | योगशतक यह प्रयत्न पारमार्थिक है - साधक की उन्नति की दृष्टि से विशेष लाभप्रद है । [ ५० ] चउसरणगमण-दुक्कडगरिहा सुकयाणुमोयणा चेव । एस गणो अणवरयं कायव्वो कुसलहेउ ति ॥ अहंत्, सिद्ध, साधु तथा धर्म - इन चार की शरण, दुष्कृत गर्हापापों की निन्दा तथा सुकृत अनुमोदना - शुभ कर्मों का समर्थन, प्रशंसा - इन क्रियाओं को पुण्य हेतु - श्रेयस्कर मानते हुए निरन्तर करते रहना चाहिए । नवाभ्यासी की प्रमुख चर्या चरमाणपवत्ताणं एसो भावण- सुयपाढो तित्थसवणमसयं तयत्थजाणम्मि ! तत्तो य आयपेहणमइनिउणं दोसवेखाए [ ५१-५२ ] जोगीणं जोगसाहगोवाओ । पहाणतरओ नवर पवत्तस्स विन्नेओ ऊपर वर्णित तथ्य चरमपुद्गलावर्त में विद्यमान योगियों के लिए योग-साधना का उपाय - आचरणीय विधि है । साधना में प्रवृत्त मात्र योगियों के लिए - नवाभ्यासी साधकों के लिए यहाँ प्रतिपादित किया जा रहा कार्यक्रम प्रमुख उपाय के रूप में समझा जाना चाहिए । ऐसे साधक को भावना - अनुचिन्तना, सद्विचारणा, शास्त्र-पाठ, तीर्थ सेवन, बार-बार शास्त्र श्रवण, उसके अर्थ का ज्ञान, तत्पश्चात् सूक्ष्मतापूर्वक आत्मप्रेक्षण - अपने दोषों तथा कमियों का बारीकी से अवलोकनइन कार्यों में अभिरत रहना चाहिए । कर्म-प्रसंग Womadem रागो दोसो मोहो कम्मोदयसंजनिया Jain Education International [ ५३ ] एए एत्थाऽऽयदूसणा दोसा । विन्नेया आयपरिणामो || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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