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अरति-निवारण | २४७
उत्तर गुणों का - अहिंसा आदि मूल गुणों के परिपोषक गुणों का बहुमान करना चाहिए- उनका आदरपूर्वक पालन करना चाहिए । स्वीकार किये हुए गुणों में अरति - अरुचि हो तो उसका निवारण करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
अरति-निवारण
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समक्खाया 1
[ ४६-४८ ] अकुसलकम्मोदयपुण्वरूवमेसा जओ सो पुण उवायसज्झो पाएण भयाइसु पसिद्धो ॥ सरणं भए उवाओ रोगे किरिया विसम्मि मंतोति । एए वि पावकम्मावक्कमभेया तरोण ॥
सरणं गुरु उ एत्थं किरिया उ तओ त्ति कम्मरोगम्मि । मंतो पुण सज्झाओ मोहविसविणासणो पयरो ॥
उ
बताया गया है कि अरति अशुभ कर्मों के उदय का पूर्वरूप – कारण है । पर भय आदि अशुभ कर्मोदय रूप अरति का निवारण प्रायः उपायसाध्य - उपाय द्वारा उसे मिटाया जा सकता है ।
भय उत्पन्न होने पर समर्थ की शरण, रोग हो जाने पर चिकित्सा, पथ्य, परहेज आदि क्रिया तथा विष से दुष्प्रभावित होने पर मन्त्र शरण है— उन द्वारा ये विकार दूर हो सकते हैं, उसी प्रकार अशुभ कर्म का निवारण करने के लिए भी तात्त्विक उपाय हैं ।
प्रस्तुत प्रसंग में भयाक्रान्त के लिए गुरु शरण है, कर्म रोग को मिटाने में तप क्रिया - चिकित्सा है तथा मोहरूप विष का प्रभाव नष्ट करने में स्वाध्याय श्रेष्ठ मन्त्र है ।
[ ४६ ]
एएस जत्तकरणा
तस्सोवक्कमणभावओ पायं
नो होइ पच्चवाओ अवि य गुणो एस परमत्थो ।
इन उपायों में प्रयत्नशील रहने से, पाप-कर्म के अपक्रम से - पाप
बल घटने से, मिटने से साधना में प्राय: कोई विघ्न नहीं आता । वस्तुतः
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