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________________ २३८ | योगशतक अनुमान आदि द्वारा तथा सर्वज्ञ भाषित - शास्त्र ज्ञान द्वारा उसके विषय में जानते हैं । अपुनर्बन्धक आदि की पहिचान [ १३ ] पावं न तिव्वभावा कुणइ न बहु मन्नई भवं घोरं । उचियट्टि च सेवइ सत्वत्थ वि अपुणबंधोति ॥ जो तीव्र भाव - उत्कट कलुषित भावना पूर्वक पाप कर्म नहीं करता, जो घोर - भीषण, भयावह संसार को बहुत नहीं मानता - उसमें आसक्त या रचा-पचा नहीं रहता, जो लौकिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिकसभी कार्यों में उचित स्थिति, न्यायपूर्ण मर्यादा का पालन करता है, वह अनर्बंध है | [ १४ ] सुस्सूस धम्मराओ गुरुदेवाणं जहासमाहीए । वेयावच्चे नियमो सम्मदिट्ठिस्स लिंगाई ॥ धार्मिक तत्त्व सुनने की इच्छा, धर्म के प्रति अनुराग, आत्मसमाधि - आत्मशान्ति या श्रद्धासंभृत सुस्थिर भाव से नियमपूर्वक गुरु तथा देव की सेवा, परिचर्या – ये सम्यकदृष्टि जीव के चिन्ह हैं । [१५] माणुसारी सद्धो पन्नवणिज्जो कियावरो चेव । गुणरागी सक्कारंभ संगओ तह य चारिती ॥ १ सन्मार्ग का अनुसरण करने वाला, श्रद्धावान्, धर्मोपदेश के योग्य, क्रियाशील - धर्मक्रिया में अनुरत, गुणों में अनुरागी, ययाशक्ति अध्यात्मसाधना में यत्नशील व्यक्ति चारित्री कहा जाता है । [ १६ ] एसो सामाइयसुद्धिमेय ओऽणेग हा आणापरिणइभेया अंते जा वीयरागो ----- Jain Education International मुणेव्वो । त्ति ॥ यह चारित्री वीतरागदशा प्राप्त होने तक सामायिक - समत्व की For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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