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२१४ | योगबिन्दु - 'मैं हूँ', ऐसा देखना बन्द कर देने पर-आत्मास्तित्वमूलक इस मन्यता का अभाव हो जाने पर कोई अपने में स्नेह-आसक्ति नहीं रखता। जब आत्मा में आसक्तिमूलक प्रेम नहीं होता तो मनुष्य भौतिक सुख की कामना से नहीं भटकता।
यदि आत्मा में प्रेम या आसक्ति स्थिर होगी तो वैराग्य-विरति कभी संभव नहीं होगी। रागयुक्त की कभी मुक्ति नहीं होती । अत: मोक्ष के सिद्धान्त को छोड़ ही देना पड़ेगा।
[ ४६३ ] नैरात्म्यमात्मनोऽभावः क्षणिकोवाऽयमित्यदः ।
विचार्यमाणं नो युक्तया द्वयमप्युपपद्यते ॥ उपर्युक्त अभिमत के उत्तर में ग्रन्थकार का कथन है
नैरात्म्य का अर्थ आत्मा का अभाव अथवा आत्मा की क्षणिक स्थिति है। विचार करने पर ये दोनों ही बातें युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होतीं।
[४६४ ] सर्वथैवात्मनोऽभावे सर्वा चिन्ता निरर्थका।
सति मिणि धर्मा यच्चिन्त्यन्ते नीतिमद्वचः। यदि आत्मा का सर्वथा अभाव माना जाए तो सभी चिन्ताएं-पुण्य, पाप, बन्धन, मुक्ति आदि से सम्बद्ध सब प्रकार के चिन्तन निरर्थक होंगे । नीति या न्यायवेत्ताओं का वचन है कि धर्मी-धर्मवान या गुणवान का अस्तित्व होने पर ही धर्मों का विचार होता है। अर्थात् धर्मी होगा, तभी धर्म होंगे। धर्मी के अभाव में धर्मों का अस्तित्व ही कहाँ टिकेगा।
[ ४६५ ] नैरात्म्यदर्शनं कस्य को वाऽस्य प्रतिपादकः ।
एकान्ततुच्छतायां हि प्रतिपाद्यस्तथेह कः ॥ जब आत्मा का आत्यन्तिक अभाव हो तो नैरात्म्यवाद के सिद्धान्त की सचाई का कौन अनुभव करे, क्योंकि अनुभव तो आत्मा करती है,
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