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२१२ | योगबिन्दु
शास्त्रों में आये विवेचन से यह प्रकट है कि आत्मदर्शन से मुक्ति होती है। शास्त्रीय युक्ति द्वारा यह भी सिद्ध होता है कि मोक्ष प्राप्त कर लेने के बाद भी आत्मा ज्ञानयुक्त होती है।
[ ४५८ ] नैरात्म्यदर्शनादन्ये
निबन्धननियोगतः । . दोषप्रहाणमिच्छन्ति सर्वथा न्याययोगिनः ॥
कतिपय विचारक, जो मुख्यतः तर्क का आधार लिये चलते हैं, ऐसा मानते हैं कि नैरात्म्यवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करने से ही आध्यात्मिक दोष सर्वथा मिट सकते हैं । अर्थात् समग्र रूप में दोषों के मिटने की जो बात परिकल्पित की जाती है, वह तो तभी सध सकती है, जब दोषों के आधार का ही शाश्वत अस्तित्व न हो। क्योंकि आत्मा, जिसमें दोष टिकते हैं, रहेगी तो यत्किञ्चित ही सही, दोष भी रहेंगे ।
[ ४५६ ] समाधिराज एतत् तत् तदेतत् तत्वदर्शनम् ।
आग्रहच्छेदकार्येतत् तदेतदमृतं परम् ॥
समाधिराज (नामक ग्रन्थ) में उल्लेख है कि नैरात्म्यवाद से यथार्थ तत्त्व-दर्शन प्राप्त होता है, दुराग्रह विच्छिन्न होता है-आग्रहशून्य दृष्टि प्राप्त होती है, जो साधक के लिए दिव्य अमृत है-परम शान्तिप्रद है। ___'समाधि' योग का सुप्रचलित शब्द है । यह अष्टांगयोग का आठवाँअन्तिम अंग है, जहाँ योग परिपूर्णता पाता है । यही देखकर योगबिन्दु के कुछ टीकाकारों ने समाधिराज का अर्थ 'उत्कृष्टतम समाधि' कर दिया है । यह भ्रान्ति रही है।
दिवंगत विद्वद्रत्न पं० सुखलाल जी संघवी ने 'समाधिराज' के सम्बन्ध में बड़ी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ की हैं। उनके अनुसार यह एक ग्रन्थ का नाम है । 'समाधिराज' नामक ग्रन्थ है भी, जो बहुत प्राचीन है। इसके प्राप्त होने का इतिहास बड़ा रोमांचक है । इस ग्रन्थ की प्राचीनता कनिष्क के समय जितनी है । भिन्न-भिन्न समयों में चीनी भाषा में इसके तीन रूपान्तर हुए, जो प्राप्त हैं। चौथा रूपान्तर तिब्बती भाषा में हुआ। मूल ग्रन्थ आकार
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