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________________ [ ४५४ ] निरावरणमेतद् यद् विश्वमाश्रित्य न याति यदि तत्त्वेन न निरावरणं यदि चेतना ( आत्मा ) निरावरण - सर्वथा आवरणरहित है तो फिर वह जगत को आश्रित कर विक्रिया - विकार - परिणमन कैसे प्राप्त करती है ? यदि निरावरण चेतना विकारग्रस्त होती हो तो उसे निरावरण कैसे कहा जाए ? [ ४५५ ] दिदृक्षा विनिवृत्ताऽपि नेच्छामात्रनिवर्तनात् । पुरुषस्यापि युक्त यं स च चिद्रूप एव वः ॥ चैतन्यं चेह तन्त्रे ज्ञाननिषेधस्तु मोक्ष प्राप्त हो जाने पर ज्ञान नहीं रहता क्योंकि तब तक तो इच्छा मात्र समाप्त हो जाती है, देखने-जानने की भी इच्छा मिट जाती है, ऐसा जो कहा जाता है, उसका समाधान यह है कि यदि ऐसा हो तो पुरुष ( आत्मा ) की अपने आपको देखने-जानने की इच्छा भी मिटनी चाहिए पर ऐसा नहीं होता । शब्द से चाहे उसे इच्छा न कहा जाए, स्वभाव या वर्तन कहा जाए, पर वैसी स्थिति वहाँ विद्यमान रहती है । सांख्यवादी स्वयं स्वीकार करते हैं कि आत्मा चेतना के रूप में है और चेतना अपने को जानना कभी बन्द नहीं करती । [ ४५६ ] संशुद्ध स्थितं सर्वज्ञवाद | २११ आत्मदर्शनतश्च तदस्य विक्रियाम् । भवेत् ॥ Jain Education International' प्राकृतापेक्षया मोक्ष प्राप्त हो जाने पर चैतन्य का विशुद्ध रूप रहता है और वह सभी ज्ञेय पदार्थों को जानता है । सांख्य-शास्त्र में मुक्तावस्था में ज्ञान का जो निषेध किया है, वह साधारण सांसारिक ज्ञान को लेकर किया हुआ होना चाहिए, जिसे अयथार्थ समझा जाता है । [ ४५७ ] ज्ञानसद्भावस्तन्त्रयुक्त्यैव सर्वस्य वेदकम् । भवेत् ॥ स्यान्मुक्तिर्यत् तन्त्रनोतितः । साधितः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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