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________________ १७० | योगबिन्दु वे खण्ड चाहे कितने ही छोटे हों, आखिर वे रूपी या मूर्त्त हैं, आकाश अरूपी या अमूर्त है। स्थूल रूप में उन खण्डों के बोच रहे आकाश-प्रदेशों की कल्पना नहीं की जा सकती, पर सुक्ष्मता से सोचने पर वैसा नहीं है । इसे एक स्थूल उदाहरण से समझा जा सकता है - कल्पना करें, अनाज के एक बहुत बडे - कोठे को कूष्मांडों- कुम्हड़ों से भर दिया गया । सामान्यतः देखने में लगता है, वह कोठा भरा हुआ है, उसमें कोई स्थान खाली नहीं है, पर यदि उसमें नीबू और भरे जाएं तो वे अच्छी तरह समा सकते हैं, क्योंकि सटे हुए कुम्हड़ों के बीच में स्थान खाली जो है । यों नीबुओं से भरे जाने पर भी सूक्ष्म रूप में और खाली स्थान रह जाता है, बाहर से वैसा लगता नहीं । यदि उस कोठे में सरसों भरना चाहें तो वे भो समा जायेंगे । सरसों भरने पर भी सूक्ष्म रूप में और खाली स्थान रहता है । यदि नदी के रजकण उसमें भरे जाएं, तो वे भी समा सकते हैं । दूसरा उदाहरण दीवाल का है। चुनी हुई दीवाल में हमें कोई स्थान प्रतीत नहीं होता पर, उसमें हम अनेक खूंटियाँ, कीलें गाड़ सकते हैं । यदि वास्तव में दीवाल में स्थान खालो नहीं होता तो यह कभी संभव नहीं था। दीवाल में स्थान खाली है, मोटे रूप में हमें मालूम नहीं पड़ता । अस्तु । क्षेत्र पल्योपम की चर्चा के अन्तर्गत यौगलिक के बालों के खण्डों के बीच-बीच में जो आकाश प्रदेश होने की बात है, उसे भी इसी दृष्टि से समझा जा सकता है । यौगलिक के बालों के खण्डों को संस्पृष्ट करने वाले आकाश प्रदेशों में से प्रत्येक को प्रतिसमय निकालने की कल्पना की जाय । यों निकालते-निकालते जब सभी आकाश-प्रदेश निकाल लिए जाएँ, कुआ बिलकुल खाली हो जाय, वैसा होने में जितना काल लगे, उसे क्षेत्र - पल्योपम कहा जाता है । इसका काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी है । क्षेत्र पल्योपम दो प्रकार का है - व्यावहारिक एवं सूक्ष्म । उपर्युक्त विवेचन व्यावहारिक क्षेत्र - पल्योपम का है । सूक्ष्म क्षेत्र - पल्योपम इस प्रकार है - कुए में भरे यौगलिक के केशखण्डों से स्पृष्ट तथा अस्पष्ट सभी आकाश-प्रदेशों में से एक-एक समय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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