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[ आत्मनां तत्स्वभावत्वे
ईश्वरस्यापि सन्न्यायाद्
जैसा कि माना गया है, आत्माओं का अपना स्वभाव है, उसी प्रकार प्रकृति का एवं ईश्वर का भी अपना अपना स्वभाव है । ऐसा होने के कारण आत्मा का तीर्थंकर, गणधर या मुण्डकेवली पद प्राप्त करना, उस रूप में परिगत होना सर्वथा तर्कसंगत है ।
[ ३१३ ]
कालातीत का मन्तव्य | १६५
३१२ ]
प्रधानस्यापि संस्थिते । विशेषोऽधिकृते भवेत् ॥
च
सांसिद्धिकं सर्वेषामेतदाहुर्मनीषिणः । अन्ये नियतभावत्वादन्यथा न्यायवादिनः
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ज्ञानी जन बताते हैं कि ईश्वर, प्रकृति तथा आत्मा का कार्य - व्यापार सांसिद्धिक- अपने-अपने स्वभावगत संस्कार से सिद्ध है - क्रियानुगत) है | कई न्यायवादी -- तार्किक नियत-भाव के आधार पर ऐसा होना प्रतिपादित करते हैं अर्थात् वैसा होना था, इसलिए हुआ, ऐसा उनका अभिमत है ।
[ ३१४ ]
सांसिद्धिकमदोऽप्येवमन्यथा
नोपपद्यते ।
योगिनो वा विजानन्ति किमस्थानग्रहणेन नः 11
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वह नियत-भाव भी एक प्रकार से सांसिद्धिक ही है । क्योंकि जिस वस्तु में जिस रूप में परिणत होने का स्वभाव नहीं होता, वह उस रूप में कभी परिणत नहीं हो सकती । नियत-भाव भी वस्तु के स्वभाव के अनुकूल ही कार्यकर होता हैं, प्रतिकूल नहीं । योगी इस सम्बन्ध में सम्यक् रूप में जानते हैं, क्योंकि वे अपने दिव्य ज्ञान द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों को साक्षात् देखते हैं । इसलिए सामान्य जनों को इस पर विवाद करना उचित नहीं ।
[ ३१५ ] !
अस्थानं रूपमन्धस्य यथा सन्निश्चयं प्रति । तयैवातोन्द्रियं वस्तु छद्मस्थस्यापि तत्वतः
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