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________________ १६४ ] योगबिन्दु अतः उसके भेद-विस्तार में जाना अयोग्य प्रयास है। क्योंकि वह सामान्यतः अनुमान का विषय है। [ ३०८ ] साधु चैतद् यतो नीत्या शास्त्रमत्र प्रवर्तकम् । तयाभिधान भेदात् भेदः कुचितिकाग्रहः आचार्य कालातीत ने जो कहा है, वह समीचीन है। इन विषयों में शास्त्र ही प्रवर्तक-मार्गदर्शक है। इनमें जो केवल नाम का भेद है, उसे वास्तव में भेद मानना पक्षपातपूर्ण दुराग्रह है। [ ३०६ ] विपश्चितां न युक्तोऽयमैदंपर्यप्रिया हि ते । यथोक्तास्तत्पुनश्चारु हन्ताऽत्रापि निरूप्यताम् ॥ पक्षपातपूर्ण दुराग्रह ज्ञानी जनों के लिए उचित नहीं होता। जैसा पहले वणित हुआ है, वे यथार्थ में, सत्य में प्रीति रखते हैं । आचार्य कलातीत ने जो कहा है, उस पर चिन्तन करें, उसका परीक्षण करें। [ ३१० ] उभयो: परिणामित्वं तथाभ्युपगमाद् ध्र वम् । अनुग्रहात् प्रवृत्तेश्च तथाद्धाभेदतः स्थितम् ॥ ईश्वर अनुग्रह करता है, प्रकृति प्रवृत्ति कराती है, यों निश्चित रूप में दोनों का परिणामित्व-परिणमनशीलता सिद्ध होती है, जो समयान्तरवर्ती है। [ ३११ ] सर्वेषां तत्स्वभावत्वात् तदेतदुपपद्यते । नान्यथा ऽतिप्रसङ्गन सूक्ष्मबुद्ध या निरूप्यताम् ॥ सबका अपना-अपना स्वभाव है, जिसके कारण विविध कोटिक परिणमन सिद्ध होता है। वैसा न होने पर सब अव्यवस्थित हो जाता है। सूक्ष्मबुद्धि से इस पर चिन्तन करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only ! www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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