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________________ सम्यक्दृष्टि और बोधिसत्त्व | १५७ [ २७९ ] वरबोधेरपि न्यायात् सिद्धि! हेतुभेदतः । फलभेदो यतो युक्तस्तथा व्यवहिता दपि आत्म-विकास के सन्दर्भ में जो सिद्धि-सफलता प्राप्त होती है। उसका मूल कारण उत्तम बोधि-सम्यक्त्व-संपृक्त सद्ज्ञान है। अध्यात्मविकास की विभिन्न स्थितियों की निष्पन्नता में बाह्य हेतुओं का भेद प्रमुख भूमिका नहीं निभाता । ऐसा भी होता है, बाह्य हेतु व्यवहित है—व्यबधानयुक्त है, साक्षात् रूप में असम्बद्ध है, फिर भी वैसी फल निष्पत्ति होती है, जो उसकी साक्षात्सम्बद्धता में संभाव्य मानी जाती है। यदि बाह्य हेतु ही मुख्य होता तो वैसा नहीं होना चाहिए था। सारांश यह है कि फल-निष्पत्ति की मौलिक हेतुमत्ता बाह्य में नहीं,. स्व में है। [२८०-२८१ ] तथा च भिन्ने दुर्भेदे कर्मग्रन्थिमहाचले । तीक्ष्णेन भाववज्रण बहुसंक्लेशकारिणि ॥ आनन्दो जायतेऽत्यन्तं तात्त्विकोऽस्य महात्मनः । सव्याध्यभिभवे यद्वद् व्याधितस्य महौषधात् ॥ अत्यन्त कष्टप्रद कम-ग्रन्थि रूपी दुर्भेद्य भारी पर्वत जब तीक्ष्ण भाक रूपी वज्र से टूट जाता है-मोहमयी दुर्भेद्य कर्म-ग्रन्थि जब उज्ज्वल आत्मपरिणामों द्वारा भिन्न हो जाती है, खल जाती है, तब उत्तम औषधि द्वारा रोग मिटने पर रोगपीड़ित पुरुष को जैसे अत्यन्त आनन्द होता है, उसी प्रकार साधक को तात्त्विक-परपदार्थ-निरपेक्ष, आत्मप्रसूत दिव्य आनन्द की विपुल अनुभूति होती है। . [ २८२ ] भेदोऽपि चास्य विज्ञये न भूयो भवनं तथा । तीव्रसंक्लेशविगमात् सदा निःश्रेयसावहः ग्रन्थि-भेद होने से आत्मा को अपरिसीम आनन्द तो होता ही है, साथ ही साथ एक और विशेषता निष्पन्न होती है-तीव्र संक्लेश या तीव्र कषाय का अपगम हो जाने से, मोहनीय कर्म के अति तीव्र एवं प्रगाढ़ बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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