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१५६ | योगबिन्दु
[ २७६ ]
सर्वथा योग्यताभेदे तदभावोऽन्यथा भवेत् । निमित्तनामपि प्राप्तिस्तुल्या यत्तन्नियोगतः
सभी जीवों में मूलत: ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, उपयोग आदि गुण एक समान हैं। ऐसा होते हुए भी कुछ जीवों को उनका विकास, संवर्धन आदि करने की अनुकूलता प्राप्त होती है, कुछ को नहीं । उसका कारण आत्मा की भव्यत्वरूप योग्यता है, जिसके कारण आत्मा को अपने गुणों का विकास करने का सुअवसर प्राप्त होता है, जिसके न होने पर वह अवसर नहीं मिलता ।
एक बात और, निमित्त भी जीवन में सभी को प्रायः एक जैसे प्राप्त होते हैं किन्तु किन्हीं को उनसे लाभ उठाने का अवसर मिलता है, किन्हीं को नहीं । इसका कारण भी भव्यत्व ही है । ऐसा न मानने पर अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है ।
अन्यथा
[ २७७ ]
योग्यताभेदः सर्वथा नोपपद्यते ।
निमित्तोपनिपातोऽपि यत् तदाक्षेपतो ध्रुवम्
यदि उपर्युक्त सन्दर्भ में अन्य प्रकार से माना जाए तो आत्मा की योग्यता का भेद - भिन्न-भिन्न आत्माओं की अपनी-अपनी विशेष योग्यता सिद्ध नहीं होती । फलतः उनके कार्य-कलाप एवं फल- निष्पत्ति में भेद नहीं होना चाहिए । निमित्तोपलब्धि का फल भी सबके लिए एकसा होना चाहिए। पर, ये दोनों ही अघटित हैं । अतः आत्मा की भव्यत्वरूप योग्मता का स्वीकार आवश्यक है ।
[ २७८ ]
योग्यता चेह विज्ञया बीजसिद्ध याद्यपेक्षया । आत्मनः सहजा चित्रा तथा भव्यत्वमित्यतः
सम्यक दर्शन आत्मविकास का वीज है । वह जिससे सिद्ध होता है, वह आत्मा की मोक्षोपयोगी सहज योग्यता है, भव्यत्वरूप है, जिससे आत्मा की विकासप्रवण विविध स्थितियां निष्पन्न होती हैं ।
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