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________________ अपुनर्बन्धक : स्वरूप [ १३५ एतद्विषयक ऊहापोह-चिन्तन-विमर्श में अभिरत, योगमार्गानुगामी साधक प्रकृति और पुरुष (आत्मा) के वियोग-आत्मा की कर्म-बन्धन से मुक्ति के पथ पर गतिशील रहता है। [२००-२०२ ] एवं लक्षणयुक्तस्य प्रारम्भादेव चापरः । योग उक्तोऽस्य विद्वद्भिर्गोपेन्द्र ण यथोदितम् ॥ "योजनाद् योग इत्युक्तो . मोक्षण मुनिसत्तमैः । सनिवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ लेशतो ध्रुव: वेलावलनवन्नद्यास्तदापूरोपसंहृतेः प्रतिस्रोतोऽनुगतत्वेन प्रत्यहं वृद्धिसंयुतः ॥ एतद्रूप लक्षणयुक्त पुरुष के प्रारंभ से–'पूर्वसेवा' से लेकर उत्तरवर्ती सभी क्रियानुष्ठान योग के अन्तर्गत हैं, ऐसा ज्ञानी पुरुषों ने कहा है। इस सम्बन्ध में आचार्य गोपेन्द्र का प्रतिपादन है __ यह आत्मा का मोक्ष से योजना करता है, उसे मोक्ष से जोड़ता है इसलिए मुनिवरों ने इसे योग कहा है। योग का शाब्दिक अर्थ जोड़ना है । ___ ज्यों ज्यों प्रकृति निवृत्ताधिकार होती जाती है-पुरुष पर से उसका अधिकार अपगत होता जाता है, योग जीवन में क्रियान्वित होता है। जब तूफानी बाढ़ निकल जाती है तो नदी का बढ़ाव रुक जाता है। जो नदी बाढ़ के कारण आगे से बढ़ती जारही थी, अनुस्रोतगामिनी हो रही थी, वह वापस सिमटने लगती है—उलटी अपनी ओर सिकुड़ती जाती है, प्रतिस्रोतगामिनी हो जाती है । उसी प्रकार जीव जब प्रतिस्रोतग्रामीलोकप्रतिकूल अध्यात्मोन्मुख हो जाता है, अपने में समाने लगता है तो उसकी अनुस्रोतगामिता-लोकप्रवाह या सांसारिक विषय-वासना की धारा के साथ बहते जाने का क्रम रुक जाता है । भिन्नग्रन्थि [ २०३ ] भिन्नग्रन्थेस्तु यत् प्रायो मोक्षे चित्तं भवे तनुः । तस्य तत्सर्व एवेह योगो योगो हि भावतः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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