SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ | योगबिन्दु [ १९५ ] प्रकृतेर्भेदयोगेन नासमो नाम आत्मनः । हेत्वभेदादिदं चार न्यायमुद्रानुसारतः प्रकृति के भेद या भिन्नता से आत्मा में मूलतः भिन्नता-असमानता नहीं आती । वास्तव में आत्मस्वरूप सर्वथा अभिन्न है, जो न्याय-युक्ति द्वारा भली भाँति सिद्ध है। [ १६६ ] एवं च सर्वस्तद्योगादयमात्मा तथा तथा । भवे भवेदतः सर्वप्राप्तिरस्याविरोधिनी आत्मा, प्रकृति आदि सबका अपने-अपने स्वभावानुरूप परिणमन होता रहता है । प्रकृति से सम्बन्ध होने के कारण आत्मा को संसारावस्था में अनेक प्रकार की स्थितियाँ-जन्म, मरण, शरीर, रूप, सुख, दुःख, उन्नति, अवनति आदि प्राप्त होती हैं। ऐसा होने में कोई विरोध नहीं आता। [ १९७ ] सांसिद्धिकमलाद् यद् वा न हेतोरस्ति सिद्धता । तद् भिन्नं यदभेदेऽपि तत्कालादिविभेदतः आत्मा के साथ अनादिकाल से चले आते कर्म-संस्कार के कारण वह (आत्मा) मूलत: अभिन्न-सर्वथा सदृश होते हुए भी भिन्नता-विविधरूपात्मकता में परिदृश्यमान है। [ १९८ ] विरोधिन्यपि चैवं स्यात् तथा लोकेऽपि दृश्यते । । स्वरूपेतरहेतुभ्यां भेदादेः फलचित्रता जैनेतर मत में भी ऐसा स्वीकृत है तथा लोक में भी ऐसा दृष्टिगोचर होता है । वस्तुओं में जो भिन्नता दिखाई देती है, वह उनके अपनेअपने स्वरूप तथा उससे सम्बद्ध अन्य कारणों पर आधत है। [ १६६ ] एवमूहप्रधानस्य प्रायो मार्गानुसारिणः । एतद्वियोगविषयोऽप्येष सम्यक् प्रवर्तते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy