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पूर्व सेवा | ११३ स्वीकृत आचार - विधि में, तो इसमें कोई हानि नहीं है । अन्य देवों के साथ द्व ेष न रखते हुए वह वैसा भले ही करे ।
पात्रे दीनादिवर्गे च पोष्यवर्गाविरोधेन न विरुद्ध स्वतश्च अपने पोष्यवर्ग - अपने ऊपर आश्रित जन के पैदा करते हुए, अपने हित में बाधा न लाते हुए, साधक को चाहिए कि वह दीन आदि वर्ग को विधिवत् - औचित्यपूर्वक दान दे । ऐसा दान समुचित है।
[ १२१ ]
व्रतस्था
दानं विधिवदिष्यते ।
[ १२२ ]
लिङ्गिनः स्वसिद्धान्ताविरोधेन वर्तन्ते ये
व्रत- पालक, साधुवेश में स्थित, सदा अपने सिद्धान्त के अविरुद्ध चलने वाले जन दान के पात्र हैं, उनमें भी विशेषत: वे, जो अपने लिए भोजन नहीं पकाते ।
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पात्र - मपचास्तु
विशेषतः । सदैव हि ॥
यत् ॥
लिए कोई असुविधा
[ १२३ ]
दीनान्धकृपणा ये व्याधिग्रस्ता निः स्वाः क्रियान्तरशक्ता एतद्वर्गो हि मीलकः
[ १२४ ]
जो कार्य करने में अक्षम हैं, अन्धे हैं, दुःखी हैं, विशेषतः रोग पीड़ित हैं, निर्धन हैं, जिनके जीविका का कोई सहारा नहीं है, ऐसे लोग भी दान
अधिकारी हैं ।
विशेषतः ।
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यदुपकाराय
दत्तं नातुरापथ्य तुल्यं
द्वयोरप्युपजायते । तदेतद्विधिवन्मतम्
तु
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जो दिया हुआ, दाता और गृहीता दोनों के लिए उपकारजनक होता है, वह दान उपयुक्त दान है । दान बीमार को अपथ्य दिये जाने जैसा नहीं चाहिए । अर्थात् किसी रुग्ण व्यक्ति को कोई सुस्वादु और पौष्टिक पदार्थ
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