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११२ | योगबिन्दु समुचित मानते हैं । अन्यथा विशेषतः नवाभ्यासी प्रारंभिक साधकों का अभीप्सित सिद्ध नहीं होता।
चारिसंजीवनीचार-न्याय एक कहानी के रूप में है। कहानी यों
एक स्त्री थी। वह चाहती थी, उसका पति उसके वश में हो। उसने कहीं से दो प्रकार की जड़ियों का ज्ञान प्राप्त किया। पहली को खिला देने से मनुष्य बैल बन जाए और दूसरी को खिलाने से वापस मनुष्य बन जाए। वह अपने पति को पहली जड़ी खिलाकर बैल बना देती और दूसरी जड़ी खिलाकर वापस पुरुष बना लेती । संयोग ऐसा बना--एक दिन वनस्पति के जंगल में, जहाँ से वह जड़ियां लाती थीं, दूसरी जड़ी की पहचान भूल गई । वह अत्यन्त विषादग्रस्त हो गई--क्या करे, उसका पति फिर कभी मनुष्य नहीं बन पायेगा।
उस जगल में से गुजरते हुए किसी बुद्धिमान् मनुष्य ने उस स्त्री को विलपते--कलपते देखा। सब कुछ जानकर वह बोला--इसमें विषाद कैसा? वह दूसरी जड़ी इस जंगल में ही तो है । इस बैल को जंगल में खुला छोड़ दो। अन्यान्य वनस्पतियों के साथ वह जड़ी भी संभवत: उसके मुह में पड़ जाए और वह पुनः मनुष्य बन जाए । यह सुनकर उस स्त्री ने बैल को जंगल में खुला छोड़ दिया। वह वनस्पतियाँ चरने लगा । संयोगवश दूसरी जड़ी उसके मुह में पड़ गई । वह वापस पुरुष हो गया।
आचार्य हरिभद्र का कहना है कि इस कथा के माध्यम से जो बताया गया है, वह तथ्य उत्तम जनों द्वारा स्वीकृत है । ऐसी सरिणि के बिना इष्टसिद्धि नहीं होगी। क्योंकि साधारण जनों में किसे मालूम, कौन यथार्थतः नमस्कार्य--वन्ध है।
[ १२० ] गुणाधिक्यपरिज्ञानाद् विशेषेऽप्येतदिष्यते ।
अद्वषेण तदन्येषां वृत्ताधिक्ये तथाऽत्मनः ॥ कोई व्यक्ति किसी देव-विशेष में अधिक गुण माने अथवा अपने द्वारा
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